मनुष्य-जीवन तभी सफल होता है, जब
कुछ भी ‘करना’ बाकी न रहे, कुछ भी ‘जानना’ बाकी न रहे और कुछ भी ‘पाना’ बाकी न रहे
। जो करना था, सब कर लिया; जो जानना था, सब जान लिया; और जो
पाना था, सब पा लिया–इस प्रकार पूरा कर ले, पूरा जान ले और पूरा पा ले तो
मनुष्य-जन्म सफल हो जाता है । इन तीनोंमेंसे अगर एक भी
पूरा हो जाय तो बाकी दो आप-से-आप पूरे हो जायँगे । ‘करना’ पूरा हो जाय तो
जानना और पाना भी पूरा हो जायगा । ‘जानना’ पूरा हो जाय तो करना और पाना भी पूरा हो
जायगा । ‘पाना’ पूरा हो जाय तो करना और जानना भी पूरा हो जायगा । ये तीनों ही हम कर
सकते हैं । हम ये ही कर सकते हैं और कुछ नहीं कर सकते; यह विलक्षण बात है ।
करना कब पूरा होगा ?–आपलोग ध्यान देकर
सुनें, बहुत बढ़िया बात है । करना तब पूरा होगा, जब अपने
लिये कुछ नहीं करेंगे । अपने लिये करनेसे करना कभी पूरा होगा ही नहीं, सम्भव ही
नहीं । कारण कि करनेका आरम्भ और समाप्ति होती है और आप वही रहते हैं । अतः
अपने लिये करनेसे करना बाकी रहेगा ही । करना बाकी कब
नहीं रहेगा ? जब अपने लिये न करके दूसरोंके लिये ही करेंगे । घरमें रहना है तो
घरवालोंकी प्रसन्नताके लिये रहना है । अपने लिये घरमें नहीं रहना है । समाजमें
रहना है तो समाजवालोंके लिये रहना है, अपने लिये नहीं । माँ है तो माँके
लिये मैं हूँ, मेरे लिये माँ नहीं । माँकी सेवा करनेके लिये, माँकी प्रसन्नताके
लिये मैं हूँ; इसलिये नहीं कि माँ मेरेको रुपया दे दे, गहना दे दे, पूँजी दे दे ।
यहाँसे आप शुरू करो । स्त्रीके लिये मैं हूँ, मेरे लिये स्त्री नहीं । मेरेको
स्त्रीसे कोई मतलब नहीं । उसके पालन-पोषणके लिये, गहने-कपड़ोंके लिये, उसके हितके
लिये, उसके सुखके लिये ही मेरेको रहना है । मेरे लिये स्त्रीकी जरूरत नहीं ।
बेटोंके लिये मैं हूँ, मेरे लिये बेटे नहीं । इस तरह अपने लिये कुछ करना नहीं होगा,
तब कृत्यकृत्य हो जाओगे । परन्तु यदि अपने लिये धन भी चाहिये, अपने लिये माँ-बाप
चाहिये, अपने लिये स्त्री चाहिये, अपने लिये भाई चाहिये तो अनन्त जन्मोंतक करना
पूरा नहीं होगा । अपने
लिये करनेवालेका करना कभी पूरा होता ही नहीं, होगा ही नहीं, हुआ भी नहीं, हो सकता
भी नहीं ! इसमें आप सबका अनुभव बताता हूँ ।
किसी कामको करनेसे पहले मनमें आती
है कि अमुक काम करना है । मनमें आनेसे पहले आप जिस स्थितिमें थे, काम पूरा करनेके
बाद पुनः उसी स्थितिमें आ जाते हैं । मिला क्या ? कुछ नहीं मिला । जैसे, पहले
व्याख्यान देनेकी मनमें नहीं थी । फिर व्याख्यान देनेकी मनमें आयी और व्याख्यान
दिया । व्याख्यान देनेके बाद मनमें व्याख्यान देनेकी नहीं रही तो वह पहलेवाली
स्थितिमें आ गये । नयी बात क्या हुई ? ऐसे ही पहले पढ़नेकी मनमें नहीं थी, फिर
मनमें पढ़नेकी आयी और फिर विद्या पढ़ी । अब पढ़नेकी मनमें नहीं रही । अतः पहले
पढ़नेकी मनमें नहीं थी, उसी स्थितिमें पीछे आये ।
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