जैसे सोनेको जाननेवाला मनुष्य सोना और गहना–दोनोंको ही जानता है, ऐसे ही
परमात्मतत्त्वको जाननेवाला तत्त्वज्ञ महापुरुष सत्तायुक्त परमात्मा (प्राप्त)-को
भी जानता है और सत्तारहित संसार (प्रतीति)-को भी जानता है–
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः
॥
(गीता २/१६)
‘असत्का तो भाव (सत्ता) विद्यमान नहीं है और सत्का अभाव विद्यमान नहीं है । तत्त्वदर्शी
महापुरुषोंने इन दोनोंका ही अन्त अर्थात् तत्त्व देखा है ।’
असत् (प्रतीति)-के दो विभाग हैं–शरीर
तथा संसार । शरीरको संसारकी सेवामें समर्पित कर देना ‘कर्मयोग’ है और
संसारसे सुख चाहना ‘जन्ममरणयोग’
है । सत् (प्राप्त)-के भी दो विभाग हैं–आत्मा तथा परमात्मा । आत्माका अपने-आपमें स्थित हो जाना ‘ज्ञानयोग’ है और अपने-आपको
परमात्माके समर्पित कर देना ‘भक्तियोग’ है । कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग–तीनोंमेंसे
किसी एकके भी पूर्ण होनेपर माने हुए अहम्का नाश हो जाता है ।
प्रतीति करण-सापेक्ष है; और जो प्रतितिसे अतीत
परमात्मतत्त्व (प्राप्त) है, वह करण-निरपेक्ष है । अतः परमात्मतत्त्वका अनुभव अभ्याससाध्य नहीं
है । इनकी आवश्यकता केवल संसारके लिये है, अपने
लिये नहीं ।
अभ्याससे केवल अवस्थाका परिवर्तन तथा एक नयी अवस्थाका
निर्माण होता है । अवस्थातीत तत्त्वका अनुभव अभ्याससे
नहीं होता, प्रत्युत अनभ्याससे
होता है । अनभ्यासका अर्थ है–कुछ न करना । करनामात्र प्रकृतिके सम्बन्धसे
होता है । प्रकृतिके सम्बन्धके बिना चेतन कुछ कर सकता ही नहीं, करना बनता ही नहीं ।
अतः उसपर करनेकी जिम्मेवारी भी नहीं है । चेतनमें कर्तृत्व है ही नहीं, फिर उससे
क्रिया कैसे होगी ? जब लेखक ही नहीं है, तो फिर लेखन-क्रिया कैसे होगी ? चेतन
अहंकारसे मोहित होकर केवल अपनेमें कर्तृत्वकी मान्यता कर सकता है–‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३/२७) ।
वास्तवमें वह न कर्ता है, न भोक्ता है–‘न करोति न
लिप्यते’ (गीता १३/२१) । अतः तत्त्वका अनुभव
करनेके लिये क्रिया और पदार्थको महत्त्व देना महान् अज्ञान है । क्रिया और
पदार्थका उपयोग संसारके हितके लिये है । अपने हितके लिये तो इनसे सर्वथा असंग,
उपराम होना है ।
तत्त्वका अनुभव प्रतीतिके द्वारा नहीं होता, प्रत्युत
प्रतीतिके त्याग (सम्बन्ध-विच्छेद)-से होता है । कारण कि प्रतीतिका आश्रय ही
बाँधनेवाला है–‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता
१३/२१) । प्रतीतिका आश्रय, सहायता लिये बिना अभ्यास नहीं होता । जिसका
आश्रय लिया जायगा, उसका त्याग कैसे होगा ? उसका तो महत्त्व ही बढ़ेगा । इसलिये तत्त्वको अभ्याससाध्य माननेसे एक बड़ी हानि यह होती है कि जिससे
बन्धन होता है, उसीको मनुष्य तत्त्वप्राप्तिमें सहायक मान लेता है और उसकी महत्ता
तथा आवश्यकता अनुभव करता है । अतः अभ्याससे बन्धन अथवा प्रतीतिकी पराधीनता
ज्यों-की-त्यों सुरक्षित रहती है, जिसके कारण प्रतीतिका त्याग करना बड़ा कठिन होता
है । जैसे, बेड़ी चाहे लोहेकी हो अथवा सोनेकी, बन्धनमें कोई फर्क नहीं पड़ता ।
फर्क पड़ता है तो केवल इतना ही पड़ता है कि लोहेकी बेड़ीका त्याग करना सुगम होता है,
पर सोनेकी बेड़ीका त्याग करना बड़ा कठिन होता है; क्योंकि अन्तःकरणमें सोनेका
महत्त्व है !
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