स्वयं (स्वरूप)-के सामने एक तो प्रतीति
(संसार) है और एक प्राप्त (परमात्मा) है । प्रतीतिके सम्मुख होना बन्धन है और प्राप्तके सम्मुख होना मुक्ति है । वास्तविक दृष्टिसे देखा जाया तो मुक्तिका अभाव कभी हुआ नहीं,
है नहीं, होगा नहीं और हो सकता नहीं । प्राप्तकी सत्ता न मानकर प्रतीतिकी
सत्ता मानना ही बन्धन है और प्रतीतिकी सत्ता न मानकर प्राप्तकी सत्ताका अनुभव करना
ही मुक्ति है । अतः बन्धन और मोक्ष केवल मान्यतामें है, स्वरूपमें नहीं ।
प्रश्न–जो
प्राप्त है, वह परमात्मतत्त्व नहीं दीखता और जो प्रतीति है, वह संसार दीखता है–इसका
क्या कारण है ?
उत्तर–जैसे, शरीरका मुख्य आधार हड्डी है, पर वह दीखती नहीं । जो मुख्य आधार नहीं है,
वह चमड़ी दीखती है । जिसमें ताकत है, वह चीज दीखती नहीं और जो चीज दीखती है, उसमें
ताकत नहीं । ऐसे ही परमात्मा संसारके मुख्य आधार हैं, पर वे नहीं दीखते, प्रत्युत
संसार दीखता है । जो वास्तवमें है, वह दीखता नहीं और जो
दीखता है, वह वास्तवमें है नहीं ।
जैसे हड्डी पिताके अंशसे और चमड़ी माताके अंशसे उत्पन्न होती
है । अतः शरीर माता-पिताका अंश है । परन्तु शरीरमें न माता दीखती है, न पिता दीखता
है । ऐसे ही संसार प्रकृति और परमात्माके संयोगसे
उत्पन्न होता है ।[1] परन्तु संसारमें न प्रकृति दीखती है, न परमात्मा दीखते है, प्रत्युत केवल
प्रकृतिका कार्य दीखता है !
शरीरमें गलेसे ऊपरी भागको ‘उत्तमांग’ कहते हैं; क्योंकि
श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण–ये पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ उसमें स्थित हैं ।
उत्तमांगमें भी ‘मुख’ प्रधान है; क्योंकि रसना (ज्ञानेन्द्रिय) और वाक्
(कर्मेन्द्रिय)–ये दोनों इन्द्रियाँ मुखमें स्थित हैं । हड्डी भी मुखमें ही
दाँतरूपसे दिखायी देती है । ऐसे ही संसारमें जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुषको भी
मुखके समान जानना चाहिये । मुख प्रायः बन्द रहता है, पर विशेष प्रसन्न होनेसे मुख
खुल जाता है और उसमें दाँत दीखने लग जाते हैं । ऐसे ही जिज्ञासुके
सामने आनेपर वे महापुरुष विशेष प्रसन्न हो जाते हैं तो परमात्मतत्त्वका बोध प्रकट
हो जाता है–
‘ब्रूयः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरुवो गुह्यमप्युत ।’
(श्रीमद्भागवत
१/१/८, १०/१३/३)
गुढ़उ तत्त्व न साधु दुरावहिं ।
आरत अधिकारी जहँ पावहिं ॥
(मानस
१/११०/१)
जैसे बछड़ा सामने आ जाय तो गायके स्तनोंमें दूध आ जाता है,
ऐसे ही जिज्ञासु सामने आ जाय तो उस महापुरुषकी कृपा उमड़ पड़ती है । जिज्ञासु अपनी
जिज्ञासाके अनुसार जितना ज्ञान ले सकता है, उतना ले लेता है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
–‘वासुदेवः
सर्वम्’ पुस्तकसे
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति
भारत ॥
सर्वयोनिषु कौन्तेय
मूर्तयः सम्भवन्ति यः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥
(गीता
१४/३-४)
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