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जबतक मनुष्य स्वयं (स्वरूपसे) भगवान्के आश्रित नहीं हो
जाता, तबतक उसकी पराधीनता मिटती नहीं और वह दुःख पाता ही रहता है ।
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कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य पराधीन हो जाता है । कामनाकी
पूर्ति न होनेपर मनुष्य वस्तुके अभावके कारण पराधीनता अनुभव करता है और कामनाकी
पूर्ति होनेपर अर्थात् वस्तुके मिलनेपर वह उस वस्तुके पराधीन हो जाता है; लेकिन
वस्तुके मिलनेपर परतन्त्रताका अनुभव नहीं होता, प्रत्युत उसमें मनुष्यको
स्वतन्त्रता दीखती है–यह उसको धोखा होता है ।
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संयोगजन्य सुखकी इच्छासे ही यह पराधीनता भोगता रहता है और
ऐसा मानता रहता है कि यह पराधीनता छूटती नहीं, इसको छोड़ना बड़ा कठिन है ।
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भगवान्के शरण होनेसे वह परम स्वाधीन हो जाता है । भगवान्की
अधीनता परम स्वाधीनता है, जिसमें भगवान् भी भक्तके अधीन हो जाते हैं ।
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जो किसी चीजको अपनी मान लेता है, वह उस चीजका गुलाम बन जाता
है और वह चीज उसका मालिक बन जाती है ।
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किसी बातको लेकर अपनेमें कुछ विशेषता दीखती है, यही
वास्तवमें पराधीनता है ।
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स्वाधीन किसे कहते हैं ? जिसे अपने लिये कुछ न चाहिए, जिसके
पास अपना करके कुछ न हो ।
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जिस व्यक्तिको अपनी प्रसन्नताके लिये दूसरोंकी ओर देखना
नहीं पड़ता, उसीका जीवन स्वाधीन जीवन है ।
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यदि हमारेमें किसी प्रकारका दासत्व न होता, तो हम किसीको भी
परतन्त्र करनेका प्रयत्न न करते । जो स्वयं स्वतन्त्र है, वह किसीको परतन्त्र नहीं
करता ।
· स्वाधीनता
एकमात्र सहज निवृत्ति तथा शरणागतिमें ही है ।
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मानव दूसरोंके मनकी बात पूरी करनेमें जितना स्वाधीन है,
उतना अपने मनकी बात दूसरों द्वारा पूरी करानेमें स्वाधीन नहीं है ।
नारायण
! नारायण !! नारायण !!!
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