जीवके
बन्धनका मूल कारण है–अहंकार । अहंकार
दो तरह का होता है–
१. अपरा (जड़) प्रकृतिका धातुरूप अहंकार (गीता ७/४; १३/५) ।
इसको अहंवृति (वृतिरूप समष्टि अहंकार) भी कहते हैं ।
२. चेतन द्वारा अपरा प्रकृतिके साथ माने हुए सम्बन्धसे होनेवाला तादात्म्यरूप
अहंकार । इसको चिज्जडग्रन्थि (ग्रन्थिरूप व्यष्टि अहंकार) भी कहते हैं ।
धातुरूप
अहंकारमें कोई दोष नहीं है; क्योंकि यह अहंकार
मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदिकी तरह एक करण ही है । इसलिये सम्पूर्ण दोष
तादात्म्यरूप अहंकारमें अर्थात् देहाभिमानमें ही हैं–‘देहाभिमानिनी
सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति’ । जीवन्मुक्त तत्वज्ञ भगवत्प्रेमी महापुरुषमें
तादात्म्यरूप अहंकारका सर्वथा अभाव होता है; अतः उसके कहलानेवाले शरीरके द्वारा
होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ धातुरूप अहंकारसे ही होती हैं[1] । परन्तु जड़ प्रकृतिके कार्य शरीरको अपना स्वरूप मान
लेनेके कारण मनुष्य अज्ञानवश अपनेको उन क्रियाओंका कर्ता मान लेता है और बँध जाता
है–‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३/२७)
।
तादात्म्यरूप
अहंकार (‘मैं हूँ’)-से परिच्छिन्नता (एकदेशीयता) आती है । परिच्छिन्नता आते ही इस
अहंकारके कई भेद हो जाते हैं । वर्ण, आश्रम, शरीर, अवस्था, योग्यता, सम्बन्ध,
व्यवसाय, धर्म, उपासना आदिको लेकर अहंकारके सैकड़ों-हजारों भेद हो जाते हैं ।
जैसे, वर्णको लेकर–‘मैं ब्राह्मण हूँ’, ‘मैं क्षत्रिय हूँ’ आदि; आश्रमको लेकर–‘मैं
ब्रह्मचारी हूँ’, ‘मैं गृहस्थ हूँ’ आदि; शरीरको लेकर–‘मैं पुरुष हूँ’, ‘मैं
स्त्री हूँ’, ‘मैं मनुष्य हूँ’, ‘मैं देवता हूँ’ आदि; अवस्थाको लेकर–‘मैं बालक
हूँ’, ‘मैं जवान हूँ’ आदि; योग्यताको लेकर–‘मैं पढ़ा-लिखा हूँ’, ‘मैं अपढ़ हूँ’,
‘मैं समझदार हूँ’ आदि; सम्बन्धको लेकर–‘मैं पिता हूँ’, ‘मैं माता हूँ’, ‘मैं पुत्र
हूँ’ आदि; व्यवसायको लेकर–‘मैं अध्यापक हूँ’, ‘मैं व्यापारी हूँ’ आदि; धर्मको लेकर–‘मैं
हिन्दू हूँ’, ‘मैं मुस्लमान हूँ’, ‘मैं ईसाई हूँ’ आदि; उपासनाको लेकर–‘मैं
निर्गुणोपासक हूँ’, ‘मैं सगुणोपासक हूँ’, ‘मैं रामका उपासक हूँ’, ‘मैं कृष्णका
उपासक हूँ’ आदि । ये सब-के-सब भेद अहम्में ही हैं,
तत्वमें नहीं । इन सबमें ‘मैं’ तो अनेक हैं, पर ‘हूँ’ (सत्ता) एक ही है[2] ।
[1]धातुरूप अहंकारसे होनेवाली क्रियाओंको गीतामें कई प्रकारसे
बताया गया है; जैसे–सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं (गीता १३/२९);
प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही सम्पूर्ण क्रियाएँ होती हैं (गीता ३/२७); गुण ही
गुणोंमें बरत रहे हैं (गीता ३/२८; १४/२३); गुणोंके सिवाय अन्य कोई कर्ता नहीं है
(गीता १४/१९); इन्द्रियाँ ही अपने-अपने विषयोंमें बरत रही हैं (गीता ५/९) ।
[2] यह तादात्म्यरूप अहंकार
प्राणीमात्रमें रहता है । अतः पशु-पक्षियोंमें भी अपनी जातिका अहंकार रहता है,
इसीलिए वे अपनी जातिवालोंके साथ ही रहते हैं और अपनी जातिमें ही सन्तान उत्पन्न
करते हैं । उनकी एक-एक जातिमें भी परस्पर अलग-अलग अहंकार रहता है । जैसे, एक मोहल्लेका
कुत्ता दूसरे मोहल्लेमें जाता है तो दूसरे मोहल्लेका कुत्ता उसको वहाँ आने नहीं
देता, उससे लड़ाई करता है–‘कुत्ता देख कुत्ता गुर्राया,
मैं बैठा फिर तू क्यों आया’ ? इस
तरह प्राणियोंमें अहंताभेद तो है, पर सत्ता भेद नहीं है ।
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