।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७७ बुधवार
तत्त्वप्राप्तिमें देरी नहीं है



श्रोता–इसमें महाराजजी, परोक्ष ज्ञान और अपरोक्ष ज्ञान...?

स्वामीजी–देखो, अभी आप पुस्तकोंकी कोई बात मत लाओ । पुस्तकोंका प्रमाण देकर मेरेको चुप कराना चाहोगे तो मैं चुप हो जाऊँगा । और क्या होगा ? परन्तु नतीजा क्या निकलेगा ? अपनी समस्या उलझेगी, सुलझेगी नहीं । मैं साफ कहता हूँ कि ज्ञान परोक्ष होता ही नहीं, हो सकता ही नहीं । ज्ञान अपरोक्ष ही होता है । ज्ञान होगा तो वह परोक्ष कैसे होगा ? और परोक्ष होगा तो वह ज्ञान कैसे होगा ? अनुभूति दो कैसे होगी ? जानना दो कैसे होगा ? इसपर भी खूब विचार करो, मैंने किया है ऐसा । ग्रन्थोंसे लाभ होता है, पर नुकसान ज्यादा होता है । यह बात तो नास्तिककी दीखती है । परन्तु मेरा विचार ऐसा ही हुआ है । अगर आप अपना कल्याण चाहते हैं तो अभी-अभी इन बातोंको छोड़ दो । अनुभूति परोक्ष होती ही नहीं ।

श्रोता–किसी चीजको मान लिया तो यह हुआ परोक्ष ज्ञान.....।

स्वामीजी–यह मानी हुई बात है ही नहीं, यह तो सीखी हुई बात है । मानी हुई बात और होती है, सीखी हुई बात और होती है, जानी हुई बात और होती है । तोता ‘राधेकृष्ण-गोपीकृष्ण’ कहना सीख लेता है तो वह परोक्ष-ज्ञानी हो गया ! परोक्षज्ञान हो ही नहीं सकता । जो परोक्ष है, वह ज्ञान कैसे ? अन्तःकरण, इन्द्रियाँ ‘अक्ष’ हैं, इससे ‘पर’ होगा, वह ज्ञान कैसे होगा ? यह तो एक प्रक्रिया है । प्रक्रियाके अनुसार चले तो यह भी ठीक है । इस प्रक्रियामें पहले विवेक, वैराग्य, षट्सम्पत्ति, मुमुक्षा–इस साधन चतुष्टयसे सम्पन्न हो । फिर श्रवण, मनन और निदिध्यासन करे । फिर तत्त्वपदार्थसंशोधन करे । यह बहुत लम्बा रास्ता है । इसमें तत्काल सिद्धि नहीं होती ।

श्रोता–महाराजजी ! आपने कहा कि हम शरीर नहीं हैं, शरीर आत्मासे भिन्न है । आपके कहनेसे हमने इसको मान लिया ।

स्वामीजी–यह मानना, मानना नहीं है बाबा, यह सीखना है । मेरी बात याद रखो कि यह मानना है ही नहीं । अनुभूति चाहे न हो, पर मान्यता दृढ़ होनी चाहिये । जैसे पार्वतीजीकी नारदके उपदेशपर दृढ़ मान्यता थी–

जन्म कोटि लगि रगर हमारी ।
बरउँ संभु  न त रहउँ कुआरी ॥
तजउँ न  नारद  कर  उपदेसू ।
आपु कहहिं  सत  बार  महेसू ॥
(मानस १/८१/३)


भगवान्‌ शंकर भी कहें तो भी नारदजीके उपदेशको नहीं छोडूँगी । भगवान्‌से भूल हो सकती है, पर नारदजीसे भूल नहीं हो सकती । इसको कहते हैं मानना । शरीर और मैं दो हैं । ब्रह्माजी भी कह दें कि शरीर और तुम एक हो तो उनकी भूल हो सकती है, पर हमारी नहीं हो सकती । हमारी समझमें न भी आये तो भी बात तो ऐसी ही है । इस प्रकारकी दृढ़ मान्यता ज्ञानके समान उद्धार करनेवाली है । यह परोक्ष नहीं है । आपने विवाह किया तो स्त्रीको अपना मान लिया । अब इसमें सन्देह होता है क्या ? विपरीत धारणा होती है क्या ? बताओ । माननेके सिवाय और इसमें क्या है ? स्त्री सती हो जाती है, आगमें जल जाती है–केवल माननेके कारण । जलनेपर भी आग बुरी नहीं लगती ।