।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण दशमी, वि.सं.२०७७ मंगलवार
नाशवान‌्की मुख्यतासे हानि



मान्यता होनेपर फिर शंका नहीं रहती, जिज्ञासा नहीं रहती । मेरा अमुक नाम हैऐसा माननेपर फिर यह नहीं होता कि मेरा अमुक नाम कैसे हैं ? कबसे है ? क्यों पड़ा है ? विवाह होनेपर आप मान लेते हो कि हमारी पत्नी है और वह मान लेती है कि हमारे पति है । पति क्यों है ? कैसे है ? कबसे है? कितने दिन रहनेवाला है ?‒ऐसा कोई विचार पैदा ही नहीं होता । इसी तरह ‘मैं शरीर हूँ’  यह मान्यता दृढ़ कर ली, तो अब मान, बड़ाई, आदर, निरादर आदि जो कुछ है, वह हमारा कैसे हो रहा हैयह शंका ही नहीं होती । जब बनावटी बातको माननेसे यह दशा होती है, तो फिर ‘भगवान् हमारे हैं और हम भगवान्‌के हैं’ इस वास्तविक बातको दृढ़तासे मान लो निहाल हो जाओ ! अगर अब भी सावधानी हो जाय तो बड़ी अच्छी बात है, नहीं तो यह सावधानी कब होगी ?

उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु ही क्रियासाध्य होती है और उसीकी प्राप्तिमें समय लगता है । तत्त्वप्राप्तिमें समय नहीं लगता; क्योंकि तत्त्व क्रियासाध्य नहीं है । वह तो स्वतःसिद्ध है । सीधी बात है कि शरीर बार-बार जन्मता-मरता हैं और स्वयं वही-का-वही रहता है‘भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ (गीता ८ । १९) ‘स एवायम्’ स्वयं हैं और ‘भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ शरीर है । जो रहता है, उसको तो मानते नहीं और जो जाता रहता हैं, उसको मानते है । अतः इसमें थोड़ा जोर लगायें कि ऐसा हम नहीं मानेंगे । अब निरादर हो गया तो क्या हो गया ! अपमान हो गया तो क्या हो गया! जैसे, पत्थरका निरादर हो गया तो क्या ! अपमान हो गया तो क्या ! सही बातको सही मान ले, बस । सही बात समझमें नहीं आये तो शास्त्र और सन्त-महात्माकी बात मान लो कि भगवान् है और वे हमारे है । उनकी बात माननेसे भगवत्प्राप्तिकी जिम्मेवारी उन्हींपर आयेगी । परन्तु यदि उनकी बात नहीं मानेंगे, उलटी बात मानेंगे, तो इसकी जिम्मेवारी आपपर आयेगी अर्थात् इसका दण्ड आपको भोगना पड़ेगा ।

आप सिद्ध नहीं कर सकते कि शरीर मैं हूँ । बडे-बड़े वैज्ञानिक भी यह बात सिद्ध नहीं कर सकते कि शरीर मैं ही हूँ । उलटी बात कैसे सिद्ध होगी ? परन्तु आपने उलटी बातको पकड़ रखा है ! नाम, रूप, जाति, वर्ण, आश्रम, देश आदिको पकड़कर बैठे हैं । उसे छोड़ेंगे नहीं, भले ही कोई कुछ कहे । कारण कि उस बातको मान लिया है, और मान लेनेके बाद जिज्ञासा होती ही नहीं । परमात्माको न मानकर उसपर शंका करते है । वास्तवमें यह माननेकी चीज है, शंका करनेकी चीज नहीं है । शंका करनी हो संसारपर करो अथवा स्वयं अपनेपर करो । ये दो ही जिज्ञासाके विषय है । परमात्माको न मानो तो फिर बिलकुल मत मानो और मानो तो फिर बिलकुल मानो । परन्तु उलटी बातको मत मानो । जो प्रत्यक्षमें नाशवान् है, टिकनेवाली चीज नहीं है; जो पहले नहीं थी, पीछे नहीं रहेगी, वह बीचमें कैसे हो गयीइस बातको ठीक समझ लो, फिर सब ठीक हो जायगा ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे