मान्यता होनेपर फिर शंका नहीं रहती, जिज्ञासा नहीं रहती
। मेरा अमुक नाम है‒ऐसा माननेपर फिर यह नहीं होता कि मेरा अमुक
नाम कैसे हैं ? कबसे है ? क्यों पड़ा है
? विवाह होनेपर आप मान लेते हो कि हमारी पत्नी है और वह मान लेती
है कि हमारे पति है । पति क्यों है ? कैसे है ? कबसे है? कितने दिन रहनेवाला है ?‒ऐसा कोई विचार पैदा ही नहीं होता । इसी तरह ‘मैं शरीर हूँ’ यह मान्यता दृढ़ कर ली, तो अब
मान, बड़ाई, आदर, निरादर
आदि जो कुछ है, वह हमारा कैसे हो रहा है‒यह शंका ही नहीं होती । जब बनावटी बातको माननेसे यह दशा होती है, तो फिर ‘भगवान् हमारे हैं और हम भगवान्के हैं’ इस
वास्तविक बातको दृढ़तासे मान लो निहाल हो जाओ ! अगर अब भी सावधानी हो जाय तो बड़ी अच्छी बात है,
नहीं तो यह सावधानी कब होगी ?
उत्पत्ति-विनाशशील वस्तु ही क्रियासाध्य
होती है और उसीकी प्राप्तिमें समय लगता है । तत्त्वप्राप्तिमें समय नहीं लगता;
क्योंकि तत्त्व क्रियासाध्य नहीं है । वह तो स्वतःसिद्ध है । सीधी बात
है कि शरीर बार-बार जन्मता-मरता हैं और
स्वयं वही-का-वही रहता है‒‘भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ (गीता ८ । १९) । ‘स एवायम्’ स्वयं हैं और ‘भूत्वा भूत्वा प्रलीयते’ शरीर है । जो रहता है, उसको तो मानते नहीं और जो जाता रहता हैं, उसको मानते
है । अतः इसमें थोड़ा जोर लगायें कि ऐसा हम नहीं मानेंगे । अब निरादर हो गया तो क्या
हो गया ! अपमान हो गया तो क्या हो गया! जैसे, पत्थरका निरादर हो गया तो क्या ! अपमान हो गया तो क्या ! सही बातको सही मान ले,
बस । सही बात समझमें नहीं आये तो शास्त्र और
सन्त-महात्माकी बात मान लो कि
भगवान् है और वे हमारे है । उनकी बात माननेसे भगवत्प्राप्तिकी जिम्मेवारी उन्हींपर
आयेगी । परन्तु यदि उनकी बात नहीं मानेंगे, उलटी बात मानेंगे,
तो इसकी जिम्मेवारी आपपर आयेगी अर्थात् इसका दण्ड आपको भोगना पड़ेगा ।
आप सिद्ध नहीं कर सकते कि शरीर मैं
हूँ । बडे-बड़े वैज्ञानिक भी यह बात सिद्ध नहीं कर सकते कि शरीर मैं ही हूँ । उलटी बात
कैसे सिद्ध होगी ? परन्तु आपने उलटी बातको पकड़ रखा है !
नाम, रूप, जाति, वर्ण, आश्रम, देश आदिको पकड़कर बैठे
हैं । उसे छोड़ेंगे नहीं, भले ही कोई कुछ कहे । कारण कि उस बातको
मान लिया है, और मान लेनेके बाद जिज्ञासा होती ही नहीं । परमात्माको न मानकर उसपर शंका करते है । वास्तवमें यह माननेकी चीज
है, शंका करनेकी चीज नहीं है
। शंका करनी हो संसारपर करो अथवा स्वयं अपनेपर करो । ये दो ही जिज्ञासाके विषय है । परमात्माको न मानो तो फिर बिलकुल मत मानो और मानो तो फिर बिलकुल मानो । परन्तु
उलटी बातको मत मानो । जो प्रत्यक्षमें नाशवान् है, टिकनेवाली
चीज नहीं है; जो पहले नहीं थी, पीछे नहीं
रहेगी, वह बीचमें कैसे हो गयी‒इस बातको
ठीक समझ लो, फिर सब ठीक हो जायगा ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
–‘भगवत्प्राप्तिकी
सुगमता’ पुस्तकसे
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