साधन शरीरनिरपेक्ष होता है । कारण कि
साधनमें स्वयंकी जरूरत है, शरीरकी नहीं । ध्येय परमात्माका होनेपर भी जड़
शरीरका सहारा लेना गलती है । समाधितक जड़ शरीरका सहारा है ! सबसे ऊँचा सहारा
परमात्माका है । उद्योग तो करो, पर उद्योगका सहारा मत लो—‘मामाश्रित्य यतन्ति ये’ (गीता ७/२९) । औरका सहारा न ले, केवल भगवान्का सहारा ले, तब काम होगा ।
एक बानि करुनानिधान
की ।
सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥
(मानस,
अरण्य॰ १०/४)
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पारमार्थिक मार्गपर चलनेके लिये विवेककी बड़ी आवश्यकता है ।
गीताका आरम्भ भी विवेकसे हुआ है । जीनेकी इच्छा और
मरनेका भय अविवेकीमें ही होता है, विवेकीमें नहीं । जो चिन्ता करते हैं, वे भी
अविवेकी हैं ।
ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये—यह इच्छा कहलाती है । प्राणशक्ति नष्ट होनेपर भी
इच्छाशक्ति रहती है, तभी आगे जन्म होता है । इच्छाशक्ति न रहे तो दुबारा जन्म नहीं
होता ।
मरनेवाला तो मरेगा ही और न मरनेवाला नहीं मरेगा । गंगाजीके प्रवाहको रोकना भी
मूर्खता है और प्रवाहको धक्का देना भी मूर्खता है !
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अपने-अपने कर्तव्य-कर्मोंके द्वारा भगवान्का पूजन करना चाहिये—
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।
(गीता १८/४५)
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य
सिद्धिं विन्दति मानवः ।
(गीता १८/४६)
परमात्माका पूजन करनेसे संसारमें सबका पूजन हो जाता है—
यथा तरोर्मूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धभुजोपशाखाः ।
प्राणोपहाराच्च यथेन्द्रियाणां तथैव सर्वार्हणमच्युतेज्या ॥
(श्रीमद्भागवत ४/३१/१४)
‘जिस प्रकार वृक्षकी जड़
सींचनेसे उसके तने, शाखाएँ, उपशाखाएँ आदि सभीका पोषण हो जाता है, और जैसे
भोजनद्वारा प्राणोंको तृप्त करनेसे सभी इन्द्रियाँ पुष्ट हो जाती हैं, उसी प्रकार
भगवान्की पूजा ही सबकी पूजा है ।’
कारण यह है कि परमात्मा सम्पूर्ण
प्राणियोंके सनातन तथा अव्यय बीज हैं—‘बीजं मां सर्वभूतानां
विद्धि पार्थ सनातनम्’ (गीता ७/१०), ‘बीजमव्ययम्’ (गीता ९/१८)
।
आत्मज्ञान न हो तो पढ़े-लिखे और अनपढ़—दोनों मनुष्य समान हैं—
पढ़े अपढ्ढे सारखे,
जो आतम नहिं लक्ख ।
शिल सादी चित्रित ‘अखा’, दो डूबण पक्ख ॥
सभी आश्रमोंका लक्ष्य परमात्मप्राप्ति ही है ।
ब्रह्मचर्याश्रम सभी आश्रमोंकी नींव है । मकान दीखता है, पर नींव नहीं दीखती ।
अच्छे-अच्छे महात्माओंकी नींव (बालकपना) दीखती नहीं, छिपी रहती है ।
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