जो बात हमारी उन्नतिके लिये ठीक नहीं है, सच्ची नहीं है,
हमारे लिये लाभदायक नहीं है, उसका त्याग कर दें—इतनी ही बात है, कोई लम्बी-चौड़ी
बात नहीं है । त्यागसे तत्काल ही शान्ति मिलती—‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्’
(१२ । १२) । उसमें कोई बाधा लगती हो तो बतायें, जिससे उसपर आपसमें विचार
करें । साफ-साफ, सरलतासे कह दें । इसमें मान होगा, अपमान होगा, स्तुति होगी,
निन्दा होगी, लोग क्या कहेंगे, क्या नहीं कहेंगे—इन सब बातोंको छोड़ दें । अगर
अपना कल्याण करना हो तो लोग चाहे कुछ भी कहें, कुछ भी करें, उस तरफ ध्यान न दें ।
तेरे भावै जो करौ, भलौ बुरौ
संसार ।
‘नारायन’ तू बैठके, अपनौ भवन बुहार ॥
त्यागका, कल्याणका काम अभी करनेका है । यह काम धीरे-धीरे
करनेका, कई दिनोंतक करनेका है—यह बात नहीं है । पर लोगोंके भीतर यह बात बैठी हुई
है कि यह तो समय पाकर होगा । सज्जनो ! मैंने खूब विचार किया है । यह बात भविष्यकी
है ही नहीं । भविष्यकी बात वह होती है, जिसका निर्माण किया जाता है । निर्माण
करनेमें समय लगता है । परन्तु जो वस्तु पहलेसे ही है, उसमें समय नहीं लगता । वह
तत्काल सिद्ध होती है । अतः जो बात हमारी जानकारीमें झूठी है, असत्य है, ठीक नहीं
है, लाभदायक नहीं है, उसका त्याग कर देना है, बस । जो
त्याग होता है, वह तत्काल होता है । त्याग धीरे-धीरे नहीं होता और ग्रहण भी
धीरे-धीरे नहीं होता ।
भगवान्ने कहा है—‘नासतो विद्यते
भावो नाभावो विद्यते सतः ।’ (गीता २ । १६) ‘असत्
वस्तुकी तो सत्ता नहीं है और सत् वस्तुका अभाव नहीं होता ।’ फिर कहा है—‘उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः’ अर्थात् इन दोनोंके तत्त्वको तत्त्वदर्शी पुरुषोंने देखा है
। देखा है—ऐसा कहा है, किया है—ऐसा नहीं कहा है । करनेमें देरी लगती है,
देखनेमें देरी नहीं लगती । अगर देरी लगती है, समय लगता है, तो आपने देखना पसन्द
नहीं किया है, करना पसन्द किया है । ज्ञान है, भक्ति है, योग है—ये तत्काल सिद्ध होते
हैं । इनकी सिद्धि वर्तमानकी वस्तु है । अगर यह वर्तमानकी वस्तु न हो, अभी सिद्ध
होने वाली न हो तो फिर सिद्ध कैसे होगी ? इसका निर्माण
करना नहीं है, कहींसे लाना नहीं है, कहीं ले जाना नहीं है, इसमें कोई परिवर्तन
करना नहीं है, फिर इसमें समयकी क्या जरूरत है ? इसपर विचार कर लें ।
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