।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
आषाढ़ कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७७ रविवार
तत्त्वप्राप्तिमें देरी नहीं है


श्रोता—महाराजजी ! हमलोगोंमें ऐसा भाव बैठा है कि महाराजजीमें तो त्याग-वैराग्य था, साधना थी, उससे अन्तःकरण शुद्ध हो गया तो चटपट काम हो गया । हमलोगोंका अन्तःकरण शुद्ध है नहीं, इसलिये यह बात हमारे भीतर बैठती नहीं !

स्वामीजी—आपकी यह बात बिलकुल असत्य है । देखो, मैं आपसे एक बात कहता हूँ । आपको विश्वास दिला दूँ—यह तो मेरी सामर्थ्य नहीं है । यह बात मेरे तो बैठी हुई है; आपके न बैठे, यह बात है ही नहीं । आपका अन्तःकरण कितना ही अशुद्ध हो, गीताने कहा है—

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानल्पवेनैव     वृजिनं संतरिष्यसि ॥
(४ । ३६)

‘अगर तू सम्पूर्ण पापियोंसे भी अधिक पापी है, तो भी तू ज्ञानरूपी नौकाके द्वारा निःसन्देह सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे अच्छी तरह तर जायगा ।’

‘पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः’ कहकर आखिरी हद कर दी ! इतना संस्कृतका बोध तो बहुतोंको होगा कि ‘पापेभ्यः’ शब्द बहुवचन होनेसे सम्पूर्ण पापियोंका वाचक है, फिर भी इसके साथ ‘सर्वेभ्यः’ शब्द दिया । ‘सर्वेभ्यः’ शब्द भी सम्पूर्णका वाचक है ! अब विचार करें कि ये दोनों शब्द देनेके बाद भी भगवान्‌ने ‘पापकृत्तमः’ शब्द और दिया है, जो अतिशयताबोधक है । पहले ‘पापकृत्’ होता है, फिर ‘पापकृत्तर’ होता है और फिर ‘पापकृत्तम’ होता है । यह आखिरी बात है । सम्पूर्ण संसारमें जितने भी पापी हो सकते हैं, उन सम्पूर्ण पापियोंसे भी अत्यधिक पापी ! उसका अन्तःकरण कितना अशुद्ध होगा, बताओ ? क्या आपके यह जँचती है कि मैं भी ऐसा ही पापी हूँ ? नहीं जँचती न ? भगवान् बताते हैं कि ऐसा महान् पापी भी ज्ञानरूपी नौकासे सम्पूर्ण पापोंसे तर जाता है । ऐसा कहकर फिर आगेके श्लोकमें कहते हैं—

यथैधांसि   समिद्धोऽग्रिर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥
(४ । ३७)

‘हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि र्ईंधनोंको सर्वथा भस्म कर देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको सर्वथा भस्म कर देती है ।’

बहुत भभकती हुई जोरदार आग हो, मामूली आग नहीं, उसके लिये ‘समिद्धः अग्निः’ शब्द दिये । ‘अग्निः’ शब्द एकवचन है । उसके साथ बहुवचन शब्द ‘एधांसि’ (र्ईंधन) दिया । भस्मके लिये ‘भस्मसात्’ शब्द कहा । ‘भस्मसात्’ का अर्थ होता है—सर्वथा भस्म कर दे, उसकी राख भी न बचे । इस तरह ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण पापोंको भस्मसात् कर देती है । पहले कहा कि ज्ञानरूपी नौकासे सम्पूर्ण पाप-समुद्रसे तर जायगा । दूसरा दृष्टान्त इसलिये दिया कि समुद्रसे तरनेपर समुद्रका अभाव नहीं होता, समुद्र रह जाता है । उस रह जानेके सन्देहको मिटानेके लिये दूसरा दृष्टान्त दिया कि ज्ञानरूपी अग्निसे सम्पूर्ण पापोंका सर्वथा नाश हो जाता है, कोई पाप बाकी नहीं रहता । यहाँ ‘कर्माणि’ कहनेसे भी काम चल जाता, फिर भी इसके साथ ‘सर्व’ शब्द दिया । तात्पर्य है कि संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध—सभी कर्मोंका नाश हो जाता है । अब इसमें देरीका क्या काम ?