।। श्रीहरिः ।।


       आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशीवि.सं.२०७७, मंगलवा
प्रतिकूलतामें विशेष भगवत्कृपा


प्रतिकूलताकी प्राप्तिमेंमें भगवान्‌की बड़ी विचित्र कृपा है, मुख्य कृपा है; परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि आप प्रतिकूलताकी चाहना करें । चाहना तो अनुकूलता और प्रतिकूलता–दोनोंकी ही नहीं करनी चाहिये, प्रत्युत भगवान्‌ जो परिस्थिति भेजें, उसीमें प्रसन्न रहना चाहिये । यदि भगवान्‌ प्रतिकूलता भेजें तो समझना चाहिये कि उनकी बहुत कृपा है । वाल्मीकिरामायणके अरण्यकाण्डमें आया है–

सुलभाः  पुरुषा राजन्  सततं  प्रियवादिनः ।
अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥
                                                       (३७/२)

संसारमें प्रिय वचन बोलनेवाले पुरुष तो बहुत मिलेंगे, पर जो अप्रिय होनेपर भी हितकारी हो, ऐसी बात कहने और सुननेवाले दुर्लभ हैं । एक मारवाड़ी कहावत है–‘सती देवे, संतोषी पावे । जाकी वासना तीन लोकमें जावे ॥’ भिक्षा देनेवाली सती-साध्वी स्त्री हो और भिक्षा लेनेवाला संतोषी हो तो उसकी सुगन्ध तीनों लोकोंमें फैलती है । ऐसे ही देनेवाले भगवान्‌ हों और लेनेवाला भक्त हो अर्थात् भगवान्‌ विशेष कृपा करके प्रतिकूलता भेजें और भक्त उस प्रतिकूलताको स्वीकार करके मस्त हो जाय तो इसका असर संसारमात्रपर पड़ता है ।

दुःखके समान उपकारी कोई नहीं है; किन्तु मुश्किल यह है कि दुःखका प्रत्युपकार कोई कर नहीं सकता । उसके तो हम ऋणी ही बने रहेंगे; क्योंकि दुःख बेचारेकी अमरता नहीं है । वह बेचारा सदा नहीं रहता, मर जाता है । उसका तर्पण नहीं कर सकते, श्राद्ध नहीं कर सकते । उसके तो ऋणी ही रहेंगे । इसलिये दुःख आनेपर भगवान्‌की बड़ी कृपा माननी चाहिये कि बहुत ठीक हुआ । इस तत्त्वको समझनेवाले मनुष्य इतिहासमें बहुत कम हुए हैं । माता कुन्ती इसे समझती थीं, इसलिये वे भगवान्‌से वरदान माँगती हैं–

विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो   दर्शनं   यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥
                                       (श्रीमद्भागवत १/८/२५)

‘हे जगद्गुरो ! हमारे जीवनमें सर्वदा पद-पदपर विपत्तियाँ आती रहें, जिससे हमें पुनः संसारकी प्राप्ति न करानेवाले आपके दुर्लभ दर्शन मिलते रहें ।’

माता कुन्ती विपत्तिको अपना प्यारा सम्बन्धी समझती हैं, क्योंकि इससे भगवान्‌के दर्शन मिलते हैं । अतः विपत्ति भगवद्दर्शनकी माता हुई कि नहीं ? इसलिये दुःख आना मनुष्यके लिये बहुत आनन्दकी बात है । दुःखमें प्रसन्न होना बहुत ऊँचा साधन है । इसके समान कोई साधन नहीं है ।

यदि साधक परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति चाहे तो वह सुख-दुःखसे ऊँचा उठ जाय–‘सुखदुःखे समे कृत्वा’ (गीता २/३८) । सुखकी चाहना करते हैं, पर सुख मिलता नहीं और दुःखकी चाहना नहीं करते, पर दुःख मिल जाता है । अतः दुःखकी चाहना करनेसे दुःख नहीं मिलता, यह तो कृपासे ही मिलता है । सुखमें तो हमारी सम्मति रहती है, पर दुःखमें हमारी सम्मति नहीं रहती । जिसमें हमारी सम्मति, रुचि रहती है, वह चीज अशुद्ध हो जाती है । जिसमें हमारी सम्मति, रुचि नहीं है, वह चीज केवल भगवान्‌की शुद्ध कृपासे मिलती है । जो हमारे साथ द्वेष रखता है, हमें दुःख देता है, उसका उपकार हम कर नहीं सकते । हमारा उपकार वह स्वीकार नहीं करेगा । वह तो हमें दुःखी करके प्रसन्न हो जाता है । हमारे द्वारा बिना कोई चेष्टा किए दूसरा प्रसन्न हो जाय तो कितने आनन्दकी बात है । अतः सज्जनो ! आगेसे मनमें पक्‍का विचार कर लेना चाहिये कि हमें हर हालतमें प्रसन्न रहना है । चाहे अनुकूलता आये, चाहे प्रतिकूलता आये, उसमें हमें प्रसन्न रहना है; क्योंकि वह भगवान्‌का भेजा हुआ कृपापूर्ण प्रसाद है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

–‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे