मनुष्य अनुकूलताको तो चाहता है, पर
प्रतिकूलताको नहीं चाहता–यह उसकी कायरता है । अनुकूलताको चाहना ही खास बन्धन है । इसके सिवाय और कोई
बन्धन नहीं है । इस चाहनाको मिटानेके लिये ही भगवान्
बहुत प्यार और स्नेहसे प्रतिकूलता भेजते हैं । यदि जीवनमें
प्रतिकूलता आये तो समझना चाहिये कि मेरे ऊपर भगवान्की बहुत अधिक, दुनियासे निराली
कृपा हो गयी है । प्रतिकूलतामें कितना आनन्द, शान्ति, प्रसन्नता है, क्या बताऊँ ?
प्रतिकूलताकी प्राप्ति मानो साक्षात् परमात्म-तत्त्वकी प्राप्ति है । भगवान्ने
कहा है–‘नित्यं च समचित्तत्व-मिष्टानिष्टोपपत्तिषु’
(१३/९) । प्रतिकूलता
आनेपर प्रसन्न रहना–यह समताकी जननी है । गीतामें इस समताकी बहुत प्रशंसा की
गयी है ।
भगवान् विष्णु सर्वदेवोंमें श्रेष्ठ तभी
हुए, जब भृगुजीके द्वारा छातीपर लात मारनेपर भी वे नाराज नहीं हुए । वे तो भृगुजीके
चरण दबाने लगे और बोले कि ‘भृगुजी ! मेरी छाती तो बड़ी कठोर है और आपके चरण बहुत
कोमल हैं; आपके चरणोंमें चोट आयी होगी !’ उन्हीं भगवान्के हम अंश हैं–‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता
१५/७) । उनके अंश होकर भी हम इस प्रकार छातीपर लात मारनेवालेका
हृदयसे आदर नहीं कर सकते तो हम क्या भगवान्के भक्त हैं ? प्रतिकूलताकी प्राप्तिको स्वर्णिम अवसर मानना चाहिये और नृत्य करना चाहिये
कि अहो ! भगवान्की बड़ी भारी कृपा हो गयी । ऐसा कहनेमें संकोच होता है कि
इस स्वर्णिम अवसरको प्रत्येक आदमी पहचानता नहीं । यदि किसीको कहें कि ‘तुम पहचानते
नहीं हो’ तो उसका निरादर होता है । अगर ऐसा अवसर मिल जाय और उसकी पहचान हो जाय कि
इसमें भगवान्की बहुत विशेष कृपा है तो यह बड़े भारी लाभकी बात है ।
गीतामें आया है कि जिसका अन्तःकरण अपने
वशमें है, ऐसा पुरुष राग-द्वेषरहित इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता हुआ
अन्तःकरणकी प्रसन्नताको प्राप्त होता है; और प्रसन्नता प्राप्त होनेपर उसकी बुद्धि
बहुत जल्दी परमात्मामें स्थिर हो जाती है (२/६४-६५) । जो प्रतिकूल-से-प्रतिकूल
परिस्थितिमें प्रसन्न रहे, उसकी बुद्धि परमात्मामें बहुत जल्दी स्थिर होगी । कारण
कि प्रतिकूलतामें होनेवाली प्रसन्नता समताकी माता (जननी)
है । अगर यह प्रसन्नता मिल जाय तो समझना चाहिये कि समताकी माँ मिल गयी और
परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिकी दादी मिल गयी । दादी कह दो या नानी कह दो ।
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