।। श्रीहरिः ।।


       आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद कृष्ण द्वादशीवि.सं.२०७७, रविवा
सर्वत्र भगवद्दर्शन


संसार प्रकृतिका कार्य है और प्रकृति भगवान्‌की शक्ति है–
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं   मे   भिन्ना   प्रकृतिरष्टधा ॥
                                              (गीता ७/४)

‘पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश–ये पंचमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार–यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी प्रकृति है ।’
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ।
                                       (श्वेताश्वेतर४/१०)

‘माया तो प्रकृतिको समझना चाहिये और मायापति महेश्वरको समझना चाहिये ।’

भगवान्‌की शक्ति होनेसे प्रकृति और उसका कार्य भगवत्स्वरूप ही हैं; क्योंकि शक्ति शक्तिमानसे अलग नहीं हो सकती । जैसे शरीरके गोरे या काले रंगको शरीरसे अलग नहीं कर सकते, जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति अवस्थाओंको शरीरसे अलग नहीं कर सकते, ऐसे ही प्रकृतिको भगवान्‌से अलग नहीं कर सकते । जैसे मनुष्य अपनी शक्ति (बल, ताकत, विद्वता, योग्यता, चातुर्य, सामर्थ्य आदि)-के बिना तो रह सकता है, पर शक्ति मनुष्यके बिना नहीं रह सकती, ऐसे ही भगवान्‌ शक्तिके बिना रह सकते हैं, पर शक्ति भगवान्‌के बिना नहीं रह सकती । तात्पर्य है कि शक्ति भगवान्‌के अधीन (आश्रित) है, भगवान्‌ शक्तिके अधीन नहीं है । शक्तिमान्‌के बिना शक्तिकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होता है । अतः भगवान्‌की शक्ति होनेसे प्रकृतिकी भी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव है ।

वास्तवमें परमात्माका स्वरूप समग्र ही है । परमात्मामें कोई शक्ति न हो–ऐसा नहीं हो सकता । अगर परमात्माको सर्वथा शक्तिरहित मानें तो परमात्मा एकदेशीय ही सिद्ध होंगे । उनमें शक्तिका परिवर्तन अथवा अदर्शन तो हो सकता है, पर शक्तिका अभाव नहीं हो सकता । शक्ति कारणरूपसे उनमें रहती ही है, अन्यथा शक्ति (प्रकृति)-के रहनेका स्थान कहाँ होगा ? इसलिये गीतामें प्रकृति और पुरुष दोनोंको ‘अनादि’ कहा गया है–

प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
                                                (१३/१९)

विश्वरूपको भी गीतामें ‘अव्यय’ कहा गया है–

योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥ (११/४)
त्वमव्ययः   शाश्वतधर्मगोप्ता    (११/१८)

संसाररूप अश्वत्थ-वृक्षको भी ‘अव्यय’ कहा गया है–

                        उर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
                              (गीता १५/१)

इससे सिद्ध हुआ कि जड़-चेतन, स्थावर-जंगमरूपसे जो कुछ दीख रहा है, वह सब अविनाशी भगवान्‌ ही हैं । भगवान्‌के बिना कुछ भी नहीं है । परन्तु भोग और संग्रहकी आसक्तिके कारण मनुष्यको सब कुछ जड़-ही-ज दीखता है ! तात्पर्य है कि जड़ संसार केवल जीवकी दृष्टि है । वास्तवमें सब-की-सब वस्तुएँ तत्त्वसे चिन्मय भगवत्स्वरूप हैं । भगवान्‌के सिवाय मैं-तू-यह-वह कुछ भी नहीं है अर्थात् ‘मैं’ भी भगवान्‌का स्वरूप है, ‘तू’ भी भगवान्‌का स्वरूप है और ‘वह’ भी भगवान्‌का स्वरूप है । भगवान्‌ कण-कणमें पूरे-के-पूरे हैं । प्रह्लादजीके कहनेपर भगवान्‌ नृसिंहरूपसे खम्भेमेंसे प्रकट हो गये; क्योंकि वे वहाँ पहलेसे ही थे ! इसलिये साधकको वृक्ष, नदी, पहाड़, पत्थर दीवार आदि कुछ भी दीखे, वह उसमें अपने इष्ट भगवान्‌को देखकर प्रार्थना कर सकता है कि हे नाथ ! मुझे अपना प्रेम प्रदान करो; हे प्रभो ! आपको मेरा नमस्कार हो, जैसा कि अर्जुनने कहा है–

वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशांकः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।
नमो नमस्तेस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥

‘आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, दक्ष आदि प्रजापति और प्रपितामह (ब्रह्माजीके भी पिता) हैं । आपको हजारों बार नमस्कार हो !! और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार हो ! नमस्कार हो !!’

नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते        नमोस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥
                                  (गीता ११/३९-४०)

‘हे सर्व ! आपको आगेसे नमस्कार हो ! पीछेसे नमस्कार हो ! सब ओरसे ही नमस्कार हो ! हे अनन्तवीर्य ! अमित विक्रमवाले आपने सबको समावृत कर रखा है; अतः सब कुछ आप ही हैं ।’


नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!


–‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे