संसार प्रकृतिका कार्य है और प्रकृति भगवान्की शक्ति है–
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना
प्रकृतिरष्टधा ॥
(गीता
७/४)
‘पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश–ये पंचमहाभूत और मन, बुद्धि
तथा अहंकार–यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी प्रकृति है ।’
मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ।
(श्वेताश्वेतर॰ ४/१०)
‘माया तो प्रकृतिको समझना चाहिये और मायापति
महेश्वरको समझना चाहिये ।’
भगवान्की शक्ति होनेसे प्रकृति और उसका कार्य भगवत्स्वरूप
ही हैं; क्योंकि शक्ति
शक्तिमानसे अलग नहीं हो सकती । जैसे शरीरके गोरे या काले रंगको शरीरसे अलग
नहीं कर सकते, जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति अवस्थाओंको शरीरसे अलग नहीं कर सकते, ऐसे ही
प्रकृतिको भगवान्से अलग नहीं कर सकते । जैसे मनुष्य अपनी शक्ति (बल, ताकत,
विद्वता, योग्यता, चातुर्य, सामर्थ्य आदि)-के बिना तो रह सकता है, पर शक्ति मनुष्यके
बिना नहीं रह सकती, ऐसे ही भगवान् शक्तिके बिना रह सकते हैं, पर शक्ति भगवान्के
बिना नहीं रह सकती । तात्पर्य है कि शक्ति भगवान्के अधीन (आश्रित) है, भगवान्
शक्तिके अधीन नहीं है । शक्तिमान्के बिना शक्तिकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव होता है
। अतः भगवान्की शक्ति होनेसे प्रकृतिकी भी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव है ।
वास्तवमें परमात्माका स्वरूप समग्र ही है । परमात्मामें कोई
शक्ति न हो–ऐसा नहीं हो सकता । अगर परमात्माको सर्वथा शक्तिरहित मानें तो परमात्मा
एकदेशीय ही सिद्ध होंगे । उनमें शक्तिका परिवर्तन अथवा अदर्शन तो हो सकता है, पर
शक्तिका अभाव नहीं हो सकता । शक्ति कारणरूपसे उनमें रहती ही है, अन्यथा शक्ति
(प्रकृति)-के रहनेका स्थान कहाँ होगा ? इसलिये गीतामें प्रकृति और पुरुष दोनोंको ‘अनादि’ कहा गया है–
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
(१३/१९)
विश्वरूपको भी
गीतामें ‘अव्यय’ कहा गया है–
योगेश्वर ततो मे त्वं दर्शयात्मानमव्ययम् ॥ (११/४)
त्वमव्ययः
शाश्वतधर्मगोप्ता (११/१८)
संसाररूप अश्वत्थ-वृक्षको भी ‘अव्यय’ कहा गया है–
उर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
(गीता १५/१)
इससे सिद्ध हुआ कि जड़-चेतन, स्थावर-जंगमरूपसे जो कुछ दीख रहा है, वह सब अविनाशी
भगवान् ही हैं । भगवान्के बिना कुछ भी नहीं है । परन्तु भोग और संग्रहकी आसक्तिके कारण मनुष्यको सब कुछ जड़-ही-जड़ दीखता है ! तात्पर्य है कि जड़ संसार केवल जीवकी दृष्टि है । वास्तवमें सब-की-सब वस्तुएँ तत्त्वसे चिन्मय भगवत्स्वरूप हैं । भगवान्के सिवाय मैं-तू-यह-वह कुछ भी नहीं है
अर्थात् ‘मैं’ भी भगवान्का स्वरूप है, ‘तू’ भी भगवान्का स्वरूप है और ‘वह’ भी
भगवान्का स्वरूप है । भगवान् कण-कणमें पूरे-के-पूरे हैं । प्रह्लादजीके कहनेपर
भगवान् नृसिंहरूपसे खम्भेमेंसे प्रकट हो गये; क्योंकि वे वहाँ पहलेसे ही थे !
इसलिये साधकको वृक्ष, नदी, पहाड़, पत्थर दीवार आदि कुछ भी
दीखे, वह उसमें अपने इष्ट भगवान्को देखकर प्रार्थना कर सकता है कि हे नाथ ! मुझे
अपना प्रेम प्रदान करो; हे प्रभो ! आपको मेरा नमस्कार हो, जैसा कि अर्जुनने कहा है–
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशांकः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च
।
नमो नमस्तेस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥
‘आप ही वायु, यमराज, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा, दक्ष आदि
प्रजापति और प्रपितामह (ब्रह्माजीके भी पिता) हैं । आपको हजारों बार नमस्कार हो !!
और फिर भी आपको बार-बार नमस्कार हो ! नमस्कार हो !!’
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोस्तु ते सर्वत एव सर्व ।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥
(गीता ११/३९-४०)
‘हे सर्व ! आपको आगेसे नमस्कार हो ! पीछेसे नमस्कार हो ! सब
ओरसे ही नमस्कार हो ! हे अनन्तवीर्य ! अमित विक्रमवाले आपने सबको समावृत कर रखा
है; अतः सब कुछ आप ही हैं ।’
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
–‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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