मैं जो यह कहता हूँ कि तत्काल सिद्धि होती है,
इसको समझनेके लिये आपलोग मेरे पीछे नहीं पड़ते कि यह कैसे होगा ? मेरे कहनेसे पीछे पड़ जाओ, यह पीछे पड़ना नहीं है । हृदयमें
लाग (धुन) लग जाय । कोई गृहस्थ छोड़कर सच्चे हृदयसे साधु हो गया, तो हो ही गया, बस ! इसमें अभ्यास नहीं
है । क्या वह साधु होनेका अभ्यास करता है ? आपकी बेटी क्या अभ्यास करती है कि मैं
बहू बन गयी ? ‘आप अभी गोरखपुरमें है’ तो क्या ‘हम गोरखपुरमें हैं’ इसका अभ्यास
करते हो ? नींद खुले तो भी मालूम होता है कि मैं गोरखपुरमें हूँ । कोई पूछे तो चट
यही बात याद आती है कि मैं गोरखपुरमें हूँ । इसकी एक माला भी जपी है क्या ? इसमें देरी नहीं लगती; क्योंकि इसमें अभ्यास नहीं करना पड़ता ।
अभ्यास करनेमें देरी लगती है ।
आपको कर्मयोग और ध्यानयोग–दोनोंकी बात बताऊँ । गीताकी बात
है, मेरी मन-गढ़न्त बात नहीं । भगवान् कहते हैं–
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते
॥
(२/५५)
‘हे अर्जुन ! जिस कालमें साधक मनोगत सम्पूर्ण
कामनाओंका अच्छी तरह त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता
है, उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।’
कामनाओंको मनोगत कहनेका तात्पर्य है कि मन कामनारूप नहीं है
। कामना आगन्तुक है, मनमें आती है । अतः कामना मनमें
हरदम नहीं रहती । आप कहते
हो कि कामना मिटती नहीं, और मैं कहता हूँ कि कामना टिकती नहीं ! दस-पन्द्रह
मिनट भी आपमें निरन्तर कामना नहीं रहती । वह तो छूट जाती है और आप दूसरी कामना पकड़
लेते हो । इसका खूब अध्ययन करना, फिर प्रश्नोत्तर करना, ऐसी कामनाओंका त्याग करना
है । किन-किन कामनाओंका त्याग करें ? तो कहा ‘सर्वान्’
अर्थात् सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करें । कोई भी कामना न
रहे ! यह बात आपको जरा भारी लगेगी कि ‘भगवान्
मिलें; भगवान्के दर्शन हों’–यह कामना भी न रहे ! यद्यपि भगवान्के
मिलनेकी, उनके दर्शनकी कामना कामना नहीं मानी गयी है । कामना जड़की होती है । चेतनकी कामना
नहीं होती, आवश्यकता होती है । परन्तु यह भी न हो ।
अब ध्यानयोगकी बात बतायें आपको । भगवान् कहते हैं–
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥
(६/१८)
‘वशमें किया हुआ चित्त जिस कालमें अपने
स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थोंसे निःस्पृह हो जाता है,
उस कालमें वह योगी कहा जाता है ।
अब कर्मयोगके (२/५५) और ध्यानयोगके (६/१८) श्लोकोंका मिलान
करके देखें । कर्मयोगमें कामनाओंके त्यागके बाद
परमात्मामें स्थिति है और ध्यानयोगमें परमात्मामें मन लगानेके बाद कामनाओंका त्याग
है–यह दोनोंमें फर्क है ।
|