।। श्रीहरिः ।।


       आजकी शुभ तिथि–
भाद्रपद शुक्ल द्वितीयावि.सं.२०७७, गुरुवा
तत्काल सिद्धिका मार्ग


मैं जो यह कहता हूँ कि तत्काल सिद्धि होती है, इसको समझनेके लिये आपलोग मेरे पीछे नहीं पड़ते कि यह कैसे होगा ? मेरे कहनेसे पीछे पड़ जाओ, यह पीछे पड़ना नहीं है । हृदयमें लाग (धुन) लग जाय । कोई गृहस्थ छोड़कर सच्‍चे हृदयसे साधु हो गया, तो हो ही गया, बस ! इसमें अभ्यास नहीं है । क्या वह साधु होनेका अभ्यास करता है ? आपकी बेटी क्या अभ्यास करती है कि मैं बहू बन गयी ? ‘आप अभी गोरखपुरमें है’ तो क्या ‘हम गोरखपुरमें हैं’ इसका अभ्यास करते हो ? नींद खुले तो भी मालूम होता है कि मैं गोरखपुरमें हूँ । कोई पूछे तो चट यही बात याद आती है कि मैं गोरखपुरमें हूँ । इसकी एक माला भी जपी है क्या ? इसमें देरी नहीं लगती; क्योंकि इसमें अभ्यास नहीं करना पड़ता । अभ्यास करनेमें देरी लगती है ।

आपको कर्मयोग और ध्यानयोग–दोनोंकी बात बताऊँ । गीताकी बात है, मेरी मन-गढ़न्त बात नहीं । भगवान्‌ कहते हैं–

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना  तुष्टः  स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
                                                     (२/५५)

‘हे अर्जुन ! जिस कालमें साधक मनोगत सम्पूर्ण कामनाओंका अच्छी तरह त्याग कर देता है और अपने-आपसे अपने-आपमें ही सन्तुष्ट रहता है, उस कालमें वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है ।’

कामनाओंको मनोगत कहनेका तात्पर्य है कि मन कामनारूप नहीं है । कामना आगन्तुक है, मनमें आती है । अतः कामना मनमें हरदम नहीं रहती । आप कहते हो कि कामना मिटती नहीं, और मैं कहता हूँ कि कामना टिकती नहीं ! दस-पन्द्रह मिनट भी आपमें निरन्तर कामना नहीं रहती । वह तो छूट जाती है और आप दूसरी कामना पकड़ लेते हो । इसका खूब अध्ययन करना, फिर प्रश्नोत्तर करना, ऐसी कामनाओंका त्याग करना है । किन-किन कामनाओंका त्याग करें ? तो कहा ‘सर्वान्’ अर्थात् सम्पूर्ण कामनाओंका त्याग करें । कोई भी कामना न रहे ! यह बात आपको जरा भारी लगेगी कि ‘भगवान्‌ मिलें; भगवान्‌के दर्शन हों’–यह कामना भी न रहे ! यद्यपि भगवान्‌के मिलनेकी, उनके दर्शनकी कामना कामना नहीं मानी गयी है । कामना जड़की होती है । चेतनकी कामना नहीं होती, आवश्यकता होती है । परन्तु यह भी न हो ।

अब ध्यानयोगकी बात बतायें आपको । भगवान्‌ कहते हैं–

यदा   विनियतं   चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥
                                                (६/१८)

‘वशमें किया हुआ चित्त जिस कालमें अपने स्वरूपमें ही स्थित हो जाता है और स्वयं सम्पूर्ण पदार्थोंसे निःस्पृह हो जाता है, उस कालमें वह योगी कहा जाता है ।


अब कर्मयोगके (२/५५) और ध्यानयोगके (६/१८) श्लोकोंका मिलान करके देखें । कर्मयोगमें कामनाओंके त्यागके बाद परमात्मामें स्थिति है और ध्यानयोगमें परमात्मामें मन लगानेके बाद कामनाओंका त्याग है–यह दोनोंमें फर्क है ।