अब ध्यानयोगमें कामनाओंका त्याग होनेके बाद क्या होगा ? ‘यथा दीपो निवातस्थो.....’ (६/१९)–जैसे
स्पन्दनरहित वायुके स्थानमें स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, हिलती-डुलती
नहीं, योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले योगीके चित्तकी वैसी ही उपमा कही गयी है ।
ऐसा होनेके बाद चित्त निरुद्ध हो जाता है । जब इस निरुद्ध अवस्थासे भी चित्त उपराम
हो जाता है, तब (चित्तसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर) ध्यानयोगी अपने-आपमें सन्तुष्ट
होता है–
यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं
योगसेवया ।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ॥
(६/२०)
चित्त उपराम कैस होगा ? संसारका कोई आदर न
होनेसे, निरुद्ध अवस्था (समाधि) होनेसे चित्त संसारमें तो जा नहीं सकता और
परमात्मतत्त्वको पकड़ नहीं सकता, इसलिये वह उपराम हो जाता है । उपराम होनेसे अपने-आपमें स्थिति होती है । परन्तु कर्मयोगमें कामनाओंका सर्वथा त्याग होनेपर तत्काल
स्वरूपमें स्थिति है ।
ध्यानयोगका फल बताया है–‘तं विध्याद्दुःखसंयोग-वियोगं योगसञ्ज्ञितम्’ (६/२३) अर्थात् जिसमें दुःखोंके संयोगका ही वियोग है, उसीको ‘योग’ नामसे जानना चाहिये । इसीको पहले ‘समत्वं योग उच्यते’ कहा है । यह योग ध्यानयोगका फल है ।
ध्यानयोगको,
चित्तवृत्तियोंके निरोधको गीताने योग नहीं माना है । गीताने दुःखसंयोगवियोगको अर्थात्
जड़तासे सर्वथा वियोगको ही योग माना है । पातंजलयोगदर्शन चित्तवृत्तिनिरोधको
योग मानता है–‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’, और उसका
फल स्वरूपमें स्थिति बताता है–‘तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्’
। परन्तु गीता आरम्भमें ही स्वरूपमें स्थितिको योग बताती है । पातंजलयोगदर्शनका योग साधनयोग है और गीताका योग सिद्धयोग है ।
ये कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग सिद्धयोग हैं । तात्पर्य
यह है कि ध्यानयोगसे स्वरूपमें स्थिति जल्दी नहीं होती, देरी लगती है; और कर्मयोग,
ज्ञानयोग, भक्तियोगसे यह बहुत जल्दी होती है ।
गीताके ज्ञानयोगसे सीधी स्वरूपमें
स्थिति होती है । उसमें
श्रवण-मनन-निदिध्यासन, सविकल्प-निर्विकल्प समाधि, सबीज-निर्बीज समाधि आदि नहीं हैं
। समाधि होगी तो दो अवस्थाएँ होंगी–समाधि और व्युत्थान । परन्तु गीताके योगमें व्युत्थान है ही नहीं, क्योंकि यह सहजावस्था
है–‘उत्तमा सहजावस्था’ इसमें व्युत्थान
होता ही नहीं । यह तत्काल होता है । इसमें देरी कब लगती है ? जबतक अन्तःकरणमें जड़
पदार्थोंका महत्त्व है, तबतक तत्काल सिद्धि नहीं होती । आपमें जड़ पदार्थोंका महत्त्व नहीं हटा तो इसमें एक मार्मिक
बात बताता हूँ । नहीं हटा तो भले ही न हटे, आप संयोगजन्य सुख न लें, इतना खयाल
रखें । सुख
लोगे तो नया संस्कार पड़ेगा । तो कहते हैं कि एक बार सुख लेनेसे क्या होता
है ? अरे भाई ! नया सुख लेकर नया संस्कार भीतरमें डाल रहे हो । एक ही उद्देश्य बन जाय कि हमें तो परमात्माकी प्राप्ति करनी
है, नया सुख नहीं लेना है । सुख आ जाय तो उससे हानि नहीं है । इसमें भी एक मार्मिक
बात है । सुख आ गया, हो गया सुख, पर सुख लेना नहीं है । जैसे भोजन किया तो
जीभपर मीठा रखनेसे मिठास आयेगी, मिर्ची रखो तो चरकास आयेगी, नमक रखो तो नमकीनपना आयेगा
। इस प्रकार विषयेन्द्रिय-सम्बन्धसे ज्ञान होगा । यह ज्ञान दोषी
नहीं है । विकार होना, उससे
सुखी-दुःखी होना दोष है । यह विकार भी आ जाय तो
विकारके साथ आप मत होओ । विकारको छोड़ दो । सुख-दुःख भोगो ही मत । उदासीन हो जाओ ।
फिर सब ठीक हो जायगा । अगर
सुख-दुःख भोगते रहोगे, राजी-नाराज होते रहोगे, तो इसका संस्कार भीतर बैठ जायगा ।
फिर वह संस्कार दूर होनेमें देरी लगेगी । इसमें भी थोड़ी छूट बताऊँ कि किसी
वक्त व्यवहारमें विकार हो भी जाय तो परवाह मत करो । परन्तु जब विचार करने बैठें,
उस समय ‘मेरेमें विकार
बिलकुल है ही नहीं’–इसको दृढ़तासे मानो ।
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