‘क्षणपरिणामिनो भावा ऋते चितिशक्तेः’
एक चितिशक्ति (चेतन)-के सिवा सब-का-सब
क्षण-परिणामी है । अतः वह मेरा स्वरूप नहीं है, मेरा नहीं है, मेरे लिये नहीं है । इस प्रकार चितिशक्तिमें दृढ़तासे स्थित रहो कि मेरेमें विकार
है ही नहीं । उस चितिशक्तिमें जितने दृढ़ रहोगे, उतनी ही आपमें विलक्षणता
आयेगी । जिस मन, बुद्धि, इन्द्रियोंको आप वशमें नहीं कर
सकते हो, अपनेमें एक कमजोरीका अनुभव होता है, वह कमजोरी नहीं रहेगी । आपको आश्चर्य
आये, ऐसा बल आ जायगा । कामको जीतनेकी, क्रोधको जीतनेकी, लोभको जीतनेकी, मोहको
जीतनेकी, मात्सर्य-दोषको दूर करनेकी ताकत स्वतः आ जायगी । परन्तु ताकत
लेनेके लिये स्थित नहीं होना है । इसका विचार ही नहीं करना है कि हमें ताकत लेनी
है । केवल
चितिशक्तिमें, अपने स्वरूपमें स्थित होना है कि मेरेमें कोई विकार नहीं है ।
दिनमें दस बार, पन्द्रह बार, बीस बार, पचास बार, सौ बार, दो-दो, तीन-तीन सेकण्डके
लिये भी इसमें स्थित हो जाओ कि हमारेमें दोष नहीं है । अपने स्वरूपको सँभाल
लो–‘संकर सहज सरूपु सम्हारा’ (मानस १/५८/४) । यह
तत्काल सिद्धि देनेवाला योग है । इसमें देरीका काम नहीं है । उन ऋषियों आदिको इतना
समय लगा, इतने वर्ष लगे–ऐसा देखकर इस बातको रद्दी कर दो तो आपकी मरजी । मेरी प्रार्थना तो यह
है कि आप इस बातको मान लो, करके देख लो । अगर देरीमें सिद्धि हो तो
देरीवाला साधन तैयार है, उसमें तो हानि होगी ही नहीं; उसे कर लेना । परन्तु मैंने जो बताया है, वह सीधा मार्ग है । उसमें मन,
बुद्धि, इन्द्रियों आदिकी कोई जरूरत नहीं है । अन्तमें तत्त्वकी
प्राप्ति होगी तो वह वास्तवमें बुद्धिके द्वारा नहीं होगी, बुद्धिके त्यागसे होगी ।
अहंतापूर्वक नहीं होगी, अहंताके त्यागसे होगी । स्वरूपमें स्थित होनेपर अहंताका
त्याग स्वतःस्वभाविक हो जायगा, और इसका त्याग होनेपर वृत्तियोंको रोकना, मनको
लगाना आदि कुछ करना नहीं पड़ेगा आपको । आपको विश्वास नहीं
होता तो करके देखो । मैं कहता हूँ बहुत जल्दी होता है । जल्दी होता है ऐसी रीति है
। यह रीति है–‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेका’ (२/४१) और ‘सम्यग्व्यवसितो हि सः’ (९/३०) । भगवान्ने कहा है–
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
(९/३०)
अगर कोई सुष्ठु दुराचारी हो, सांगोपांग दुराचारी हो, वह भी अनन्यभावसे भगवान्का
भजन करता है तो उसको साधु मान लो । अनन्यभावसे भजन करनेका अर्थ है–कभी किंचिन्मात्र भी अन्यका
आश्रय न हो ।
जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु ।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज
गेहु ॥
(मानस २/१३१)
जहाँ किसीकी भी कामना, किसीका भी आश्रय नहीं है,
वह भगवान्का खास अपना घर है । जहाँ जड़ताका आश्रय है, वह भगवान्का अपना घर नहीं है । उसमें भगवान् नहीं
बैठे हैं । आपने कामनाओंको घर दे रखा हैं तो कामनाएँ बैठेंगी वहाँ । किसी भी अवस्थामें भी कोई चाहना न हो ।
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