ध्यान देना एक मार्मिक बात बताऊँ । ‘अपि चेत्सुदुराचारो भजते’ में ‘भजते’
क्रियाका कर्ता है ‘सुदुराचारः’ । तात्पर्य है कि
वह पहले सुदुराचारी था, यह बात नहीं है । जिस समय वह भजन करता है, उस समय वह
सुदुराचारी है । अभी दुराचार छूटा नहीं है । परन्तु
भीतरमें दुराचारका आदर नहीं है, आश्रय नहीं है । भगवान् कहते हैं–‘साधुरेव स मन्तव्यः’ यह विधि है, आज्ञा है, हुक्म है ।
हुक्म इसलिये दिया जाता है कि ऐसा दीखता नहीं । उसको हम साधु कैसे मानें ? आप खुद
उसे सुदुराचारी कहते हैं । इसलिए कहते हैं कि उसको साधु ही मान लेना चाहिये–यह हुक्म है हमारा । किस कारण मानें
? कि उसने निश्चय पक्का कर लिया–‘सम्यग्व्यवसितो हि सः’–अपने
निश्चयसे कभी डिगता नहीं । कारण क्या है ? कि स्वयं साक्षात् परमात्माका अंश है ।
इसने संसारका, पदार्थोंका निश्चय कर लिया–यही तो गलती है । संसारसे विमुख होकर एक भगवान्का निश्चय कर ले, तो फिर देरी
नहीं लगती–‘क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं
निगच्छति’ (९/३१) । अर्थात् वह तत्काल धर्मात्मा हो जाता है और शाश्वती
शान्तिको प्राप्त हो जाता है । उस भक्तका कभी विनाश नहीं होता–‘न मे भक्तः प्रणश्यति’ (९/३१) । मनुष्य भक्ति करते-करते
भी भक्त होता है और अहंताको बदलनेसे भी भक्त होता है ।
मैं भगवान्का हूँ–इस प्रकार अपनी अहंताको बदल दे तो उसी क्षण भक्त हो जाता है ।
जैसे, किसी गुरुका चेला हो गया, तो हो ही गया, बस । अब आगे गुरु महाराज जानें ।
गीताके अन्तमें यही अर्जुनने कहा है–‘करिष्ये वचनं तव’
(१८/७३) । यही
शरणागति है, जो तत्काल सिद्धि देनेवाली है ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
–‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे
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