भगवत्प्रेम यज्ञ, व्रत, तीर्थ आदिसे प्राप्त
नहीं होता प्रत्युत भगवान्में दृढ़ अपनेपनसे होता है । तपस्यासे प्रेम नहीं
मिलता, प्रत्युत शक्ति मिलती है । प्रेम भगवान्में अपनापन होनेसे मिलता है । भगवत्प्रेममें जो
विलक्षण रस है, वह ज्ञानमें नहीं है । ज्ञानमें तो अखण्ड आनन्द है, पर प्रेममें अनन्त आनन्द है । भेद मतमें होता है, प्रेममें नहीं । प्रेम
सम्पूर्ण मतवादोंको खा जाता है । भगवान्की तरफ खिंचाव होनेका नाम भक्ति है ।
भक्ति कभी पूर्ण नहीं होती, प्रत्युत उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है । भगवान्में प्रेमके लिये उनमें दृढ़ अपनेपनकी
जरूरत है और उनके दर्शनके लिये उत्कट अभिलाषाकी जरूरत है । संसारको जानोगे तो उससे वैराग्य हो जायगा और परमात्माको
जानोगे तो उनमें प्रेम हो जायगा । जिसका मिलना अवश्यम्भावी है, उस परमात्मासे
प्रेम करो और जिसका बिछुड़ना अवश्यम्भावी है, उस संसारकी सेवा करो । प्रेम वहीं होता है, जहाँ अपने सुख और
स्वार्थकी गन्ध भी नहीं होती । प्रेम मुक्तिसे भी आगेकी चीज है । मुक्तितक
तो जीव रसका अनुभव करनेवाला होता है, पर प्रेममें वह रसका दाता बन जाता है । ज्ञानमार्गमें दुःख, बन्धन मिट जाता है और
स्वरूपमें स्थिति हो जाती है, पर मिलता कुछ नहीं । परन्तु भक्तिमार्गमें प्रतिक्षण
वर्धमान प्रेम मिलता है । ज्ञानके बिना प्रेम मोहमें चला जाता है और
प्रेमके बिना ज्ञान शून्यतामें चला जाताहै । जिसके भीतर भक्तिके संस्कार हैं और कृपाका
आश्रय है, उसको मुक्तिमें सन्तोष नहीं होता । भगवान्की कृपा उसकी मुक्तिके रसको
फीका करके प्रेमका अनन्तरस प्रदान कर देती है । अपने मतका आग्रह और दूसरे मतकी उपेक्षा,
खण्डन, अनादर न करनेसे मुक्तिके बाद भक्ति (प्रेम)-की प्राप्ति स्वतः होती है । भोगेच्छाका अन्त होता
है और मुमुक्षा अथवा जिज्ञासाकी पूर्ति होती है, पर प्रेम-पिपासाका न तो अन्त होता
है और न पूर्ति ही होती है, प्रत्युत वह प्रतिक्षण बढ़ती ही रहती है । संसारमें जो आकर्षण और विकर्षण (रुचि-अरुचि)
दोनों होते हैं पर परमात्मामें आकर्षण-ही-आकर्षण होता है, विकर्षण होता ही नहीं;
यदि होता है तो वास्तवमें आकर्षण हुआ ही नहीं । जैसे सांसारिक दृष्टिसे लोभरूप आकर्षणके बिना
धनका विशेष महत्त्व नहीं है, ऐसे ही प्रेमके बिना ज्ञानका विशेष महत्त्व नहीं है,
उसमें शून्यवाद आ सकता है ।
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