।। श्रीहरिः ।।

     




           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन (अधिक) शुक्ल सप्तमी
वि.सं.२०७७, बुधवा
अमृतबिन्दु 


भगवत्प्रेम यज्ञ, व्रत, तीर्थ आदिसे प्राप्त नहीं होता प्रत्युत भगवान्‌में दृढ़ अपनेपनसे होता है ।

 

तपस्यासे प्रेम नहीं मिलता, प्रत्युत शक्ति मिलती है । प्रेम भगवान्‌में अपनापन होनेसे मिलता है ।

 

भगवत्प्रेममें जो विलक्षण रस है, वह ज्ञानमें नहीं है । ज्ञानमें तो अखण्ड आनन्द है, पर प्रेममें अनन्त आनन्द है ।

 

भेद मतमें होता है, प्रेममें नहीं । प्रेम सम्पूर्ण मतवादोंको खा जाता है ।

 

भगवान्‌की तरफ खिंचाव होनेका नाम भक्ति है । भक्ति कभी पूर्ण नहीं होती, प्रत्युत उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है ।

 

भगवान्‌में प्रेमके लिये उनमें दृढ़ अपनेपनकी जरूरत है और उनके दर्शनके लिये उत्कट अभिलाषाकी जरूरत है ।

 

संसारको जानोगे तो उससे वैराग्य हो जायगा और परमात्माको जानोगे तो उनमें प्रेम हो जायगा ।

 

जिसका मिलना अवश्यम्भावी है, उस परमात्मासे प्रेम करो और जिसका बिछुड़ना अवश्यम्भावी है, उस संसारकी सेवा करो ।

 

प्रेम वहीं होता है, जहाँ अपने सुख और स्वार्थकी गन्ध भी नहीं होती ।

 

प्रेम मुक्तिसे भी आगेकी चीज है । मुक्तितक तो जीव रसका अनुभव करनेवाला होता है, पर प्रेममें वह रसका दाता बन जाता है ।

 

ज्ञानमार्गमें दुःख, बन्धन मिट जाता है और स्वरूपमें स्थिति हो जाती है, पर मिलता कुछ नहीं । परन्तु भक्तिमार्गमें प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम मिलता है ।

 

ज्ञानके बिना प्रेम मोहमें चला जाता है और प्रेमके बिना ज्ञान शून्यतामें चला जाताहै ।

 

जिसके भीतर भक्तिके संस्कार हैं और कृपाका आश्रय है, उसको मुक्तिमें सन्तोष नहीं होता । भगवान्‌की कृपा उसकी मुक्तिके रसको फीका करके प्रेमका अनन्तरस प्रदान कर देती है ।

 

अपने मतका आग्रह और दूसरे मतकी उपेक्षा, खण्डन, अनादर न करनेसे मुक्तिके बाद भक्ति (प्रेम)-की प्राप्ति स्वतः होती है ।

 

भोगेच्छाका अन्त होता है और मुमुक्षा अथवा जिज्ञासाकी पूर्ति होती है, पर प्रेम-पिपासाका न तो अन्त होता है और न पूर्ति ही होती है, प्रत्युत वह प्रतिक्षण बढ़ती ही रहती है ।

 

संसारमें जो आकर्षण और विकर्षण (रुचि-अरुचि) दोनों होते हैं पर परमात्मामें आकर्षण-ही-आकर्षण होता है, विकर्षण होता ही नहीं; यदि होता है तो वास्तवमें आकर्षण हुआ ही नहीं ।

 

जैसे सांसारिक दृष्टिसे लोभरूप आकर्षणके बिना धनका विशेष महत्त्व नहीं है, ऐसे ही प्रेमके बिना ज्ञानका विशेष महत्त्व नहीं है, उसमें शून्यवाद आ सकता है ।