कितनी ही आफत आ जाय, कितना ही दुःख हो जाय,
कितना ही अपमान हो जाय, आत्महत्याकी इच्छा कभी नहीं करनी चाहिये । पहले किये कर्मोंके फलस्वरूप जो दुःखदायी परिस्थिति
आनेवाली है, वह तो आयेगी ही ।[1] आत्महत्या करके भी उससे कोई बच नहीं सकता । उलटे
आत्महत्याका एक नया पाप-कर्म और हो जायगा ! परन्तु दुःखदायी
परिस्थितिको सहन कर लेंगे तो पुराने पाप नष्ट होंगे और हम शुद्ध हो जायँगे ।
कोई भी परिस्थिति सदा रहनेवाली नहीं होती । न
सदा सुख रहता है, न सदा दुःख रहता है । सूर्यका उदय होनेके बाद अस्त होना और अस्त होनेके बाद उदय होना प्रकृतिका
नियम है । अतः दुःखदायी परिस्थिति आनेपर घबराना नहीं चाहिये‒
सुखं दुःखं च भवाभावौ च लाभालाभौ मरणं जीवितं च ।
पयार्यतः सर्वमवाप्नुवन्ति तस्माद्
धीरो नैव हृष्येन्न शोचेत् ॥
(महाभारत,
शांतिपर्व २५/३१)
‘सुख-दुःख, उत्पत्ति-विनाश, लाभ-हानि और जीवन-मरण‒ये समय-समयपर क्रमसे सबको प्राप्त होते हैं
। इसलिये धीर पुरुष इनके लिये न हर्ष करे, न शोक करे ।’
यद्भावि
तद्भवत्येव यदभाव्यं न तद्भवेत्
।
इति निश्चतबुद्धीनां न चिन्ता बाधते क्वचित् ॥
(नारदपुराण,
पूर्व. ३७/४७)
‘जो होनेवाला है, वह होकर ही रहता है और जो
नहीं होनेवाला है, वह कभी नहीं होता‒ऐसा जिनकी बुद्धिमें निश्चय होता है, उन्हें
चिन्ता कभी नहीं सताती ।’
जब भगवान्का चरणामृत लेते हैं, तब बोलते हैं‒
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशानाम्
।
विष्णो पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥
‘भगवान् विष्णुका चरणामृत अकालमृत्यु
(कुबुद्धि) का हरण करनेवाला तथा सम्पूर्ण रोगोंका नाश करनेवाला है । उसको ग्रहण
करनेवालेका पुनर्जन्म नहीं होता ।’
इसीलिये सभीको भगवान्का चरणामृत लेते रहना चाहिये, जिससे
ऐसी (आत्महत्याकी) कुबुद्धि, खोटी बुद्धि पैदा
न हो । गंगाजल भगवान् विष्णुके ही चरणोंका जल है ।
अतः सभीको अपने घरोंमें गंगाजल रखना चाहिये और छोटे-बड़े सबको सुबह-शाम उसका चरणामृत लेना चाहिये ।
अगर एक आदमी दूसरे आदमीकी हत्या कर दे तो यह मरनेवालेकी तो
आकस्मिक मृत्यु है, पर मारनेवालेका नया पाप है, जिसका भयंकर दण्ड उसको भोगना पड़ेगा
। कारण कि किसीके
भी प्रारब्धमें ऐसा विधान नहीं होता कि वह अमुक आदमीके हाथसे मरेगा ।
मरनेवाला आयु पूरी होनेपर किसी भी कारणसे मर सकता है, पर उसको मारनेवाला मुफ्तमें
ही निमित्त बनकर पापका भागी हो जाता है । जैसे, न्यायलयने एक आदमीको दस बजे फाँसी
देनेका हुक्म दिया । परन्तु एक दूसरे आदमीने उसको जल्लादोंके हाथोंसे छुड़ा लिया और
ठीक दस बजे उसकी हत्या कर दी । कारण कि उसके मनमें वैर था; अतः उसने सोचा कि इसको
मारकर मैं अपने वेरका बदला भी लूँ और सरकारका काम भी कर दूँ । परन्तु ऐसी
स्थितिमें उस हत्यारेको भी फाँसीकी सजा होगी । कारण कि न्यायलयने उसको मारने
(फाँसी देने) का हुक्म जल्लादोंको दिया था, न कि दूसरे आदमीको ।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म जन्मकोटीशतैरपि
॥
‘अपने किये हुए शुभ या अशुभ कर्मोंका फल
अवश्य ही भोगना पड़ता है । कर्मोंका फल भोगे बिना उनका सैकड़ों-करोड़ों (अनन्त)
जन्मोंमें भी नाश नहीं होता ।’
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