।। श्रीहरिः ।।

                                     




           आजकी शुभ तिथि–
आश्विन शुक्ल नवमी, वि.सं.२०७७, रविवा
मनकी हलचलके नाशके सरल उपाय



मनकी हलचलका कारण क्या है ?

जब मनमें हलचल होने लगे तभी यह विचार करना चाहिये कि इसका कारण क्या है ? गहराईसे विचार करनेपर पता लगेगा कि अपनी मनचाहीका न होना और अनचाहीका हो जाना‒यही मनकी हलचलका कारण है ।

भक्तियोगकी दृष्टिसे शरीर, प्राण, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि तथा मैंपन अपना नहीं है; अपितु सब कुछ भगवान्‌का है । इनको अपना और अपनेको भगवान्‌से अलग मानना, इस विपरीत मान्यतासे ही मनमें दुःख और हलचल होती है । हलचल होनेका और कोई कारण नहीं है । जो कुछ होता है वह हमारे परमसुहृद् प्रभुका मंगलमय विधान है, यह सोचकर प्रसन्न होना चाहिये; उलटे मनको मैला करना सर्वथा नासमझी ही है ।

ज्ञानयोगकी दृष्टिसे शरीर, प्राण, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि तथा मैंपन सब कुछ प्रकृतिका है । मैंका आधार परमात्मतत्त्व है, वह अपना स्वरूप ही है । प्रकृति ही प्रकृतिके गुणोंमें बरत रही है (गीता १३/२९), स्वरूप तो अपने आपमें स्थित है ही । उसमें क्रिया करना-कराना सम्भव ही नहीं है । तब फिर हलचल कैसी ?

कर्मयोगकी दृष्टिसे शरीर, प्राण, मन और बुद्धि तथा मैंपन‒यह सब कुछ अपना नहीं, संसारका है और इनको संसारकी सेवामें ही लगाना है । अपने लिये इनकी आवश्यकता नहीं है । इनको अपना तथा अपने लिये माननेसे ही दुःख आता है और हलचल होती है । यह मान्यता‒यह भूल मिट गयी, फिर दुःख और हलचल कैसे रह सकती है ?

ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग, पुरुषार्थवाद और प्रारब्धवाद इन सबका तात्पर्य मनकी चिन्ताको मिटानेमें ही है, कर्तव्यकर्मको छुड़ा देनेमें बिलकुल नहीं है ।

उपर्युक्त दृष्टियोंसे यह बात सिद्ध होती है कि शरीर आदिको चाहे तो भगवान्‌का, चाहे प्रकृतिका और चाहे संसारका मान लो । ‘ये अपने नहीं है’‒इस नित्य-सिद्ध बातको न मानकर अपना मानना भूल और बेसमझी है । यही दुःखोंका और हलचलका कारण है । भूल मिटनेके बाद हलचलके लिये किंचिन्मात्र भी स्थान नहीं है । फिर तो केवल आनन्द-ही-आनन्द है ।

 

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे

 

जो मिल जाय, उसीसे काम चलाना है, नहीं मिले तो उसकी इच्छा ही नहीं करना है । किसी चीजकी इच्छा ही नहीं हो तो दुःख कैसे होगा ? ‘जाही विधि राखे राम, ताही विधि रहिये’‒यह बहुत बढ़िया बात है ! यदि इसे नहीं मानोगे तो रोनेके सिवाय क्या करोगे ?

‒ ‘सत्संगके फूल पुस्तकसे