भगवान् कर्मोंसे नहीं मिलते । कर्मोंसे
मिलनेवाली चीज नाशवान् होती है । कर्मोंसे धन, मान, आदर, सत्कार मिलता है । परमात्मा अविनाशी हैं । वे कर्मोंका फल नहीं
हैं, प्रत्युत आपकी चाहनाका फल है । परन्तु आपको
परमात्माके मिलनेकी परवाह ही नहीं है, फिर
वे कैसे मिलेंगे ?
भगवान् मानो कहते हैं कि मेरे बिना तेरा काम चलता है तो
मेरा भी तेरे बिना काम चलता है । मेरे बिना तेरा काम अटकता है तो मेरा काम भी तेरे
बिना अटकता है । तू मेरे बिना नहीं रह सकता तो मैं भी तेरे बिना नहीं रह सकता । आपमें परमात्मप्राप्तिकी जोरदार इच्छा है ही
नहीं । आप सत्संग करते हो तो लाभ जरूर होगा । जितना सत्संग करोगे, विचार
करोगे, उतना लाभ होगा—इसमें
सन्देह नहीं है । परन्तु परमात्माकी प्राप्ति जल्दी नहीं होगी । कई जन्म लग जायँगे, तब
उनकी प्राप्ति होगी । अगर
उनकी प्राप्तिकी जोरदार इच्छा हो जाय तो भगवान्को आना ही पड़ेगा । वे तो हरदम
मिलनेके लिये तैयार हैं ! जो
उनको चाहता है, उसको वे नहीं मिलेंगे तो फिर किसको मिलेंगे ? इसलिये ‘हे नाथ ! हे मेरे नाथ !’ कहते हुए सच्चे हृदयसे उनको पुकारो । सच्चे हृदयसे प्रार्थना, जब भक्त सच्चा गाय है । तो भक्तवत्सल कान में, वह
पहुँच झट ही जाय है ॥ भक्त सच्चे हृदयसे प्रार्थना करता है तो भगवान्को आना ही पडता है ।
किसीकी ताकत नहीं जो भगवान्को रोक दे । जिसके भीतर एक भगवान्के सिवाय अन्य कोई
इच्छा नहीं है, न जीनेकी इच्छा है,
न मरनेकी इच्छा है,
न मानकी इच्छा है, न सत्कारकी इच्छा है,
न आदरकी इच्छा है, न रुपयोंकी इच्छा है,
न कुटुम्बकी इच्छा है,
उसको भगवान् नहीं मिलेंगे तो क्या मिलेगा ?
आप पापी हैं या पुण्यात्मा हैं,
पढ़े-लिखे हैं या अपढ़ हैं,
इस बातको भगवान् नहीं देखते । वे तो केवल आपके हृदयका भाव देखते
हैं— रहति न प्रभु चित चूक किए की । करत सुरति सय बार हिए की ॥ (मानस,
बाल॰२९/३)
वे हृदयकी बातको याद रखते हैं,
पहले किये पापोंको याद रखते ही नहीं !
भगवान्का अन्तःकरण ऐसा है, जिसमें
आपके पाप छपते ही नहीं ! केवल आपकी अनन्य लालसा छपती है । |