भगवान्
कैसे मिलें ? कैसे मिलें ? ऐसी
अनन्य लालसा हो जायगी तो भगवान् जरूर मिलेंगे, इसमें
सन्देह नहीं है । आप और कोई इच्छा न करके, केवल
भगवान्की इच्छा करके देखो कि वे मिलते है कि नहीं मिलते हैं ! आप करके देखो तो मेरी
भी परीक्षा हो जायगी कि मैं ठीक कहता हूँ कि नहीं ! मैं तो गीताके बलपर कहता हूँ ।
गीतामें भगवान्ने कहा है—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ (४/११) ‘जो भक्त जिस प्रकार मेरी शरण लेते हैं, मैं उन्हें उसी प्रकार आश्रय देता हूँ ।’ हमें भगवान्के बिना चैन नहीं
पड़ेगा । हम भगवान्के बिना रोते हैं तो भगवान् भी हमारे बिना रोने लग जायँगे ! भगवान्के
समान सुलभ कोई है ही नहीं ! भगवान् कहते हैं— अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः । तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥ (गीता ८/१४) ‘हे पृथानन्दन ! अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें लगे हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुलभतासे
प्राप्त हो जाता हूँ ।’ भगवान्ने अपनेको तो सुलभ कहा है,
पर महात्माको दुर्लभ कहा है— बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यन्ते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥ (गीता
७/१९) ‘बहुत जन्मोंके अन्तिम जन्ममें अर्थात् मनुष्यजन्ममें ‘सब कुछ परमात्म ही हैं’—इस प्रकार जो ज्ञानवान मेरे शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है ।’ हरि दुरलभ नहिं जगत में, हरिजन दुरलभ होय । हरि हेर्याँ सब जग मिलै, हरिजन कहिं एक होय ॥ भगवान्के भक्त तो सब जगह नहीं मिलते,
पर भगवान् सब जगह मिलते हैं । भक्त जहाँ भी निश्चय कर लेता
है, भगवान् वहीं प्रकट हो जाते हैं— आदि अंत जन अनंत के, सारे कारज
सोय । जेहि जिव ऊर नहचो धरै, तेहि
ढिग परगट होय ॥ प्रह्लादजीके लिये भगवान् खम्भेमेंसे प्रकट हो गये— प्रेम बदौं प्रहलादहिको, जिन
पाहनतें परमेस्वरु काढे़ ॥
(कवितावली
७/१२७) |