मैं मेरे की
जेवड़ी गलबन्ध्यो संसार । दास कबीरा क्यों बँधे जाके राम आधार ॥ जबतक अपने पासके पदार्थोंको, व्यक्तियोंको‒‘मैं-मेरा’ मानकर
सम्बन्ध रखोगे तो वे पदार्थ, व्यक्ति तो निकल जायँगे, पर बन्धन आपके पास रह जायगा
। माल खरीदते हैं, बिक्री करते हैं, गोदाम भर लेते हैं, फिर वह खाली कर देते हैं ।
हाथ लगता है‒नफा अथवा नुकसान । ऐसे
ही संसारको अपना मान लोगे तो नुकसान हाथ लगेगा ।
आपना मानकर फँसना हो तो आपकी मर्जी । यदि आप अर्पण कर दोगे तो आपके पास पड़े-पड़े
पदार्थोंको ही भगवान् अपना मान लेंगे । यदि कोई पूछे कि चोर ले जाय, उसे अर्पण कर देंगे तो क्या
भगवान् उसे अपना मान लेंगे ? तो उसका उत्तर यह है कि वास्तवमें
यह सब भगवान्का तो है ही । आपने-हमने धावा
बोला है, छापा मारा है । सही रास्ते आ जाओ । भगवान्की वस्तुको भगवान्की
मान लो । जरा बताओ‒आपका उनपर आधिपत्य चलता है ? जब आपका आधिपत्य ही नहीं
चलता तो आपकी कैसे हुई ? फिर उसकी माननेमें क्या कठिनता है ? केवल बेईमानी छोड़कर
ईमानदारी अपनानी है‒इसीका नाम है मुक्ति । हमारी चीज है नहीं, उसे अपनी मान
ली । भगवान् अपने हैं, उन्हें अपना माना नहीं । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि भी
अपने नहीं हैं । जब ये भी अपने नहीं हैं; तब परिवार, धन आदि अपना कैसे होगा ? भगवान्
कहें ‒‘चलो अब यहाँसे’ तो हाँ महाराज ! चलो मौजसे, यहाँ कुछ काम नहीं है । तेरा ही
काम करना है । जहाँ रखेंगे रामजी वहां रहेंगे दास । सज्जनो ! बहुत सीधी और सरल बात है । आप थोड़ी कृपा करो । इस
तत्त्वकी वास्तविकताको समझो । लोभ, राग, ममताके कारण आरम्भमें थोड़ा कठिन दीखता है
। भगवान्से इतना कह दो कि ‘ महाराज ! सब कुछ आपका ही है ।’ वस्तु जहाँ-की-तहाँ
रहने दो । परिवार जहाँ-का-तहाँ रहने दो । केवल भीतरसे यह
मान लो‒‘हे नाथ ! यह सब कुछ मेरा नहीं है, सब कुछ आपका ही है ।’ इतनेमें भगवान्
प्रसन्न हो जायँगे । भगवान् आपका बड़ा भारी उपकार मानेंगे । उपकार कैसा ?
आप मुक्त हो गये न‒यही उपकार है भगवान्पर । जैसे बच्चा माँके कहनेसे दूध पी लेता है तो माँ राजी हो जाती है ।
मानो माँपर उपकार करता है, माँको निहाल कर देता है । बेटा कहता है‒‘माँ ! तेरे
कहनेसे दूध पीता हूँ । मैंने तेरेपर बड़ी कृपा कर दी ।’ तो माँ भी मानती है कि
तुमने दूध पी लिया, बड़ी कृपा की मेरेपर । ऐसे ही ठाकुरजी
कहेंगे‒‘तूँने मेरेको दे दिया; निहाल कर दिया । अर्थात् तू मुक्त हो गया, तेरा
बन्धन मिट गया । बस यही मेरा निहाल होना है, नहीं तो मेरेको क्या निहाल करेगा ?
वस्तुएँ तू अपनी मानकर रखता तो भी मेरी थीं, अब मेरी मानकर दे दी तो मेरी ही हैं ।
वास्तवमें तू भी मेरा ही है । केवल इनपर छापा मारकर मुफ्तमें दुःखी हो रहा था ।
तेरी नीयत सुधर गयी, अब दुःखी नहीं रहेगा ।’ सर्वथा इच्छाओंका त्याग करके अर्पण कर देनेसे यहाँ दुःख मिट जाता है और आनन्द-ही-आनन्द हो जाता है
। इच्छा-नाशका फल परमात्माकी प्राप्ति नहीं है ।
परमात्मतत्त्व तो स्वतःसिद्ध है, इच्छाएँ तो पर्दा बनी हुई हैं । इच्छाओंका
त्याग करनेसे वह पर्दा हट जाता है । परमात्मा हैं, वे ज्यों-के-त्यों प्रत्यक्ष हो
जाते हैं । दुःखोंका सर्वथा अभाव हो जाता है । जितने भी
संसारमें दुःख हैं, उन सबका मूल कारण सुखकी इच्छा है । इस इच्छाके त्यागनेमें हम
सब स्वतन्त्र हैं, जब चाहें तब ही त्याग कर सकते हैं । अतः इच्छाओंके त्याग कर
देनेमें ही मनुष्य-जीवनकी सार्थकता है । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘कल्याणकारी
प्रवचन भाग-२’ पुस्तकसे (गीताप्रेससे पूर्व-प्रकाशित) |