।। श्रीहरिः ।।

                                                   




           आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७७, रविवा

इच्छाओंका त्याग कैसे हो ?




बनने-बिगड़नेवाली विनाशी वस्तुओंमें आपकी स्थिति नहीं होती । विनाशीको आदर देकर आप फँस गये । फिर भी आप उससे एक नहीं हो सकते; क्योंकि जड़ और चेतनकी एकता सम्भव नहीं । ‘ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते ।’ कितनी विचित्र बात कही गयी उस तत्त्वके विषयमें । ऐसा वह तत्त्व सबके हृदयमें स्थित है‒‘हृदि सर्वस्य विष्ठितम्’, ‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ । मनुष्य कैसा ही दुष्ट है, अच्छा है, मंदा है, भला है, दुराचारी है अथवा सदाचारी है‒सबके भीतर परमात्मा एक ही है, वह ज्यों-का-त्यों है, उसको तो देखते ही नहीं । रात-दिन नाशवान्‌ ही देखते हो । ‘सम्मीलने नयनयोर्न हि किञ्चिदस्ति ।’ आँख मिची; धौंकनी बन्द हुई तो कुछ नहीं है‒

मनुष्यतन फिर फिर नहीं होई । उमर सब गफलतमें खोई ॥

किया शुभ करम नहीं कोई ।

स्वप्ना-सा हो जावसी  सुत-कुटुम्ब धन-धाम ।

हो सचेत बलदेव नींदसे  जप ईश्वरका नाम ॥

आज जो ‘है’ दीखता है, सब स्वप्नकी तरह हो जायगा । जिस दिन आँख मिचेगी तो ‘जै रामजीकी’ अर्थात् यह जो ‘है’ की तरह दीखता है, स्वप्नकी तरह हो जायगा । उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा । मनुष्य अभिमान करता है कि हम ऐसा कर लेंगे, क्या कर लोगे ? सिवाय समय-बरबादके कुछ नहीं कर सकोगे । यह मनुष्य-शरीरका समय बड़ा अमूल्य है, परमात्मप्राप्तिका साधन है । इसलिये भाइयो ! चेत करो । नाशवान्‌की इच्छा ही बाँधनेवाली है । बन्धन होनेका और कोई कारण नहीं है । इच्छाओंका त्याग करते ही मौज हो जायगी । यदि जीनेकी इच्छाका त्याग कर देंगे तो मौत आनेसे पहले थोड़े ही मर जाओगे ! जबतक प्रारब्धके अनुसार उमर है, उतने दिन मौजसे जीयेंगे, पर इच्छा रहते हुए मर गये तो बेमौत मरना पड़ेगा ।

हम सब जानते हैं कि नाशवान्‌ टिकेगा नहीं । इसके साथ रह सकेंगे नहीं । यह हमारे साथ रहेगा नहीं । कभी रहा नहीं, कभी रह सकेगा नहीं । पीढ़ियाँ बीत गयीं, पर आजतक कोई भी पदार्थ किसीके साथ गया नहीं । इसलिये कृपा करके इनकी इच्छाका त्याग करो । लोग अभिमान करते हैं कि यह जमीन हमारी है, यह धन हमारा है । भर्तृहरि कहते हैं‒‘नैकेनापि समं गता वसुमती मुञ्ज त्वया यास्यति ।’

‘हे मुंज ! यह पृथ्वी किसीके साथ गयी नहीं; परन्तु मालूम होता है, यह तेरे साथ जायगी ।’ संसारकी कोई वस्तु किसीके साथ नहीं जाती । भागवतमें आया है‒राजालोग कहते हैं कि ‘हमें इतनी पृथ्वी मिल जायगी’, पृथ्वी कहती है कि ‘मैं तुम्हें तो क्या मिलूँगी, पर तुम मेरेमें जरूर मिल जाओगे ।’ इसलिये जो भी मिला है, उसे दूसरोंके हितमें सदुपयोग कर लो; ‘सबके सुखमें हमें सुख है’‒ऐसा भाव जहाँ है वहीं भगवान्‌ हैं ।