।। श्रीहरिः ।।

                                                  




           आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७७, शनिवा

इच्छाओंका त्याग कैसे हो ?




दासता क्या है ? धनके लिये कुत्तेकी तरह दर-दर भटकते हैं कि कुछ मिल जाय । भाइयो ! वास्तवमें कुछ मिलता है नहीं । जो मिल भी जायगा तो ठहरेगा नहीं । यदि वह ठहर जायगा तो आपका शरीर नहीं रहेगा । जो आज ‘है’ रूपसे दीख रहा है‒सब ‘नहीं’ में परिणत हो रहा है । सत्‌ परमात्मा ही ‘है’ रूपसे  सदा रहते हैं । इनका कभी अभाव होता ही नहीं । अभाव होता है वह सत्‌ कैसा ? इसलिये केवल उसको पानेकी इच्छा ही रहे । कुछ नहीं तो ‘हे नाथ ! केवल आपमें प्रेम हो जाय । आपके बिना रह नहीं सकूँ‒ ‘हेली म्हारी हरि बिन रह्यो रे न जाय ।’ अब उसके बिना रह नहीं सकते, ऐसी दशा हो जाय ।

मन में लागी चटपटी कब निरखूँ घनश्याम ।

नारायण  भूल्यो  सभी  खान-पान-विश्राम ॥

भगवान्‌के लिये खान-पान-विश्राम सब भूल जायगा । एक ही लगन भगवान्‌के लिये लग जायगी, फिर इतनी अलौकिकता मनुष्यमें आयगी कि उसका वर्णन कोई नहीं कर सकता । अनन्त, अपार,असीम आनन्द होगा । सन्तोंका संग, सद्विचारोंका संग, सद्‌ग्रन्थोंका संग‒इस प्रकार सत्‌का संग करो‒यही दवाई है । महान्‌ आनन्द, विचित्र आनन्द, विलक्षण आनन्द फूट-फूटकर निकलेगा, आनन्द भीतरसे उमड़ेगा महाराज ! आनन्द हिलोरे मारेगा । बुखारके समय, आफतके समय, निन्दा-अपमान आदि प्रतिकूल परिस्थितिके समय भी भीतरसे मस्ती निकलेगी । विपरीत-से-विपरीत परिस्थितिमें भी आनन्द निकलेगा । यह सच्‍ची बात है; सद्‌ग्रन्थोंकी, सत्पुरुषोंकी बात है, मैं कहता हूँ । सन्तोंने करके देखा है, उनके अनुभव हुआ है, उनके हरदम मस्ती रहती है ।

भगवत्प्राप्तिकी एक विलक्षण स्थिति होती है । सब वेदोंका तत्त्व मिल जाता है । मनुष्यमात्र उसको प्राप्त हो सकता है । भाई हो, बहन हो, पढ़ा-लिखा हो, अपढ़ हो, रोगी अथवा निरोग हो, किसी वर्ण, आश्रम, किसी सम्प्रदायमें कोई क्यों न हो‒सबके लिये इस तत्त्वकी प्राप्ति खुली है । मुफ्तमें इतना आनन्द मिल सकता है । कितनी मौज मिल सकती है ! इसकी प्राप्तिमें परतन्त्रताका, पराधीनताका लेश नहीं, फिर लोग प्राप्ति करते क्यों नहीं ? भगवान्‌ कहते हैं‒

अश्रद्दधानाः  पुरुषा  धर्मस्यास्य  परंतप ।

अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥

(गीता ९/३)

‘मेरी बातोंपर विश्वास नहीं करते, इसलिये मेरेको प्राप्त न होकर जन्म-मरणके चक्रमें पड़े रहते हैं । खोटा रास्ता ले लिया । मेरेको प्राप्त न होकर मौतके रस्ते पड़ गये । नाशवान्‌की ओर देखते रहनेसे मरता रहता है ।

है ज्योतियों का भी ज्योति   तूं  सबसे प्रथम जो भासता ।

अव्यय सनातन दिव्य दीपक सर्व विश्व जिससे प्रकाशता ॥

भाइयो और बहनो ! ध्यान दें‒पहले परमात्माका दर्शन होता है, पीछे संसार दीखता है । परन्तु परमात्माकी तरफ देखते ही नहीं । आपको यह पंडाल दीखता है, खंभे दीखते हैं‒इनसे पहले एक चीज दीखती है । खंभे-पंडाल आदि बादमें दीखते हैं । परन्तु उधर दृष्टि न होनेसे पंडाल-खंभे आदि ही दीखते हैं । विचार किया जाय तो सबसे पहले प्रकाश दीखता है, उस प्रकाशके अन्तर्गत ही पंडाल, खंभे आदि दीखते हैं । ऐसे ही सच्‍चिदानन्द परमात्माके अन्दर यह संसार दीख रहा है । सबसे पहले वही दीखता है । जो ज्ञान है, वह अलुप्त ज्ञान है जिसके द्वारा जाग्रत्‌, स्वप्न, सुषुप्ति‒तीनों  दीखते हैं; बाल्यावस्था, जवानी, बुढ़ापा‒तीनों दीखते हैं; उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय‒तीनों दीखते हैं; ये सब-के-सब जिस प्रकाशमें दीखते हैं, वह प्रकाश सबसे पहले दीखता है, इसके बाद वस्तुएँ दीखती हैं । खंभा, हाथ आदि उस प्रकाशके अन्तर्गत दीखते हैं । दिखनेवाली वस्तुएँ बनती-बिगड़ती है; पर प्रकाशमें परिवर्तन नहीं होता । ऐसे ही वह प्रकाश, वह परमात्मतत्त्वका ज्ञान ज्यों-का-त्यों रहता है । वह ज्ञान ही आपका स्वरूप है ।