।। श्रीहरिः ।।

                                                 




           आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण षष्ठी, वि.सं.२०७७, शुक्रवा

इच्छाओंका त्याग कैसे हो ?




भगवान्‌ एक पल भी दूर नहीं हटते । परमात्मा सर्वत्र हैं, सब कालमें हैं‒

बहिरन्तश्र्च   भूतानामचरं   चरमेव    

सूक्षत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥

(गीता १३/१५)

सब जगह, बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे परमात्मा-ही-परमात्मा हैं । उनको नमस्कार करो, पुकारो‒‘हे नाथ ! हे नाथ ! दीख जाओ ।’ जैसे गोपिकाओंने कहा‒ ‘प्यारे दीख जाओ ! दीख जाओ !’ ‘आ जाओ’, नहीं कहा । हम सब-की-सब आपकी हैं‒सब दिशाओंमें आपको देख रही हैं, दीख जाओ महाराज !

तासामाविरभूच्छौरिः स्मयमानमुखाम्बुजः ।

पीताम्बरधरः स्रग्वी साक्षान्मन्ममथमन्मथः ॥

कामदेवको भी लज्जि़त कर देनेवाले अति सुन्दर रूपसे साक्षात् भगवान्‌ श्रीकृष्ण उनके बीच वहीं प्रकट हो गये । भगवान्‌ वे ही हैं । वे अब दूर नहीं चले गये हैं । हमारे पास ही विराजमान हैं; हम देखते ही नहीं । हम नाशवान्‌ वस्तुओंकी तरफ देखते हैं, केवल नाशवान्‌की ओर दृष्टि है ।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।

(गीता ४/११)

भगवान्‌का यह स्वभाव है कि ‘तुम नाशवान्‌को देखते हो तो नाशवान्‌रुपसे मैं आ जाऊँगा । उस रूपमें ही तुम्हारेको दीखूँगा ।’ प्यास लग जाय तो जलरूपसे आ जायँगे । भूख लग जाय तो अन्नरूपसे आ जायँगे । जैसी इच्छा करोगे, उसी रूपमें आ जायँगे । आयेंगे तो भगवान्‌ ही, दूसरा आवे कहाँसे ? भगवान्‌के रूपसे उनको चाहोगे तो भगवान्‌ कहतें है‒‘मैं आ जाऊँगा ।’ संसारके रूपसे चाहोगे तो संसार-रूपसे आ जाऊँगा ।

भगवतरूपसे चाहनेवालोंका भगवान्‌ बहुत जल्दी कल्याण करते हैं । भगवान्‌के भूख लगी हैं कि किसी तरह मेरा अंश मेरे पास आ जाये । भगवान्‌की भूख मिटाओ, भगवान्‌पर दया करो, सब लोग उनपर मेहरबानी करो । केवल एक भगवान्‌को ही चाहो और कुछ मत चाहो । अन्य सब इच्छाओंको मिटानेके लिये केवल भगवान्‌की इच्छा करो । सब इच्छाएँ मिट जायँगी तो भगवान्‌के मिलनेकी इच्छा पूरी हो जायगी । संसारकी आशा, तृष्णा, इच्छा‒ये ही बाधक हैं । अपने पास जो वस्तुएँ हैं, सब संसारकी हैं । उन्हें संसारकी सेवामें लगा दो; निहाल हो जाओगे । एकदम सच्‍ची बात है ।

चाह  गयी  चिन्ता  मिटी  मनवा  बेपरवाह ।

जिसके कुछ नहीं चाहिये सो शाहनपतिशाह ॥

है श्रेष्ठसे भी श्रेष्ट पर ‘तूँ’ चाह करके भ्रष्ट है ।

भगवान्‌की प्राप्ति होनेपर, चाहना मिटनेपर; महान्‌ सुख, महान्‌ आनन्द होगा । सज्जनो ! बिना कौड़ी-पैसेके आनन्द आता है, इतना विलक्षण आनन्द भीतरसे उमड़ता है । अभी तो बाहरसे सुख लेते हैं, पर सुख आता नहीं । जो आता है सो भाता नहीं और जो भाता है वह रहता नहीं ।

कंचन खान खुली घट माहीं ।

रामदास   के    टोटो नाहीं ॥

भीतरसे रोम-रोममें आनन्द प्रकट होता है । इतना आनन्द रहता है कि उसको देखकर दूसरे आदमी मस्त हो जायँ । बस एक ही बात है कि संसारकी दासता मिट जाय ।