।। श्रीहरिः ।।

                                                




           आजकी शुभ तिथि–
कार्तिक कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७७, गुरुवा

इच्छाओंका त्याग कैसे हो ?




देहीति वचनं श्रुत्वा   देहास्थाः पञ्चदेवताः ।

मुखान्निर्गत्य गच्छन्ति धीह्रीश्रीधृतिकिर्तयः ॥

‘दे’‒कहनेसे अर्थात् माँगनेसे बुद्धि, लज्जा, शोभा, धैर्य और कीर्ति नष्ट हो जाती हैं । ‘हमारे पास जो है‒ये ले लो भाई’‒ऐसा देनेका भाव होते ही परमात्मा सामने आ जाते हैं ।

परमात्माके प्रकट न होनेमें आड़ है‒संसारकी इच्छा । परमात्मा तो सबके पास, सबके नजदीक-से-नजदीक हैं । आप अपनेको मानते हो ‘मैं हूँ’, यह ‘मैं’ तो है दूर और इससे भी नजदीक परमात्मा हैं । ‘मैं हूँ’‒यह शरीरको लेकर है । परमात्मामें ‘मैंपन’ नहीं लगाना पड़ता । इसलिये वे तो आपके अति निकट हैं । प्रकट क्यों नहीं होते ? जड़ पदार्थोंकी इच्छाके कारण बाहरकी ओर ही दृष्टि रहती है, इस कारण परमात्मा नहीं दीखते । जहाँ बाहरकी दृष्टि हटी कि परमात्मा चट प्रकट हो जाय । ‘साहिब पाया तिण ओले’‒सन्तोंको आश्चर्य होता है कि तिनकेकी ओटमें परमात्मा है । तिनका क्या है ? ‘निःस्पृहस्य तृणं जगत्‌ ।’ तिनकेकी तरह सारा जगत्‌ है । इस जगत्‌रूपी तृणकी इच्छा छोड़ी और परमात्मा प्रकट हुए । घाणीके बैलकी आँखें बँधी रहती हैं । बँधी हुई आँखोंसे रात-दिन, उम्रभर चलता है; पर रहता है वहाँ-के-वहाँ ही । इसी तरह संसारकी इच्छाका ढक्कन लगाये हुए वहाँ-के-वहाँ ही रहते हैं । जन्मो-मरो, जन्मो-मरो‒इस चक्‍करका अन्त कैसे आवे ? भाई ! विनाशवाले पदार्थोंकी इच्छा छोड़नेपर अनुत्पन्न तत्त्व आपके सामने प्रकट हो जायगा । निहाल हो जाओगे । रात-दिन नष्ट होनेवाली चीजोंकी इच्छा रखते हुए क्या हाथ लगेगा ? अभाव और दुःखके सिवा कुछ नहीं मिलेगा । फिर भी रात-दिन इन चीजोंके पीछे लगे हुए हैं । कैसी विडम्बना है ?

एक लड़का पढ़नेके लिये काशी गया । घरवालोंने पण्डितजीसे पूछा‒‘महाराज ! हमारा लड़का कितना पढ़ गया है ? पण्डितजीने उत्तर दिया कि लड़का पूरा पढ़ गया है । केवल दो बातोंकी कमी है, बाकी तो पूरा विद्वान बन गया है । स्वयंमें तो अकल नहीं और दूसरोंकी मानता नहीं । यही दशा हमारी हो रही है । हमलोग पूरी बात समझते नहीं और दूसरोंकी बतलाई हुई बात मानते नहीं, यही कमी है । या तो स्वयं जानो अथवा जानकारकी बात मान लो । सन्तोंने कहा है‒‘चाख-चाख सब छाड़िया माया रस खारा हो ।’ उनकी बात मान लो । देखने, खाने-पीनेसे इतने दिन क्या मिल गया ? इतने दिन भोगकर देख लिया । बीस-तीस-पचास, सत्तर वर्षके हो गये । अब यह भी तमाशा देख लो; परीक्षा कर लो । निहाल हो जाओगे । सच्‍चे हृदयसे इच्छाका त्याग करके देखो । परमात्मा तो ज्यों-के-त्यों सदैव, सर्वत्र मौजूद हैं, आप उनके अंश हो । परन्तु भीतरसे कौन देखे ? बाहर-ही-बाहर देखनेसे अपने हृदयमें रहनेवाले प्रभु दीखते नहीं । उनके यह नहीं है कि इतने दिन नहीं देखा तो अब नहीं दिखूँगा । सूर्यको छः महीने आप मत देखो, गुफामें ही रहो; पर जिस दिन आप सूर्य भगवान्‌को देखना चाहो, उसी दिन दिख जायँगे । यह नहीं कि तुमने छः महीने नहीं देखा तो मैं कम-से-कम छः दिन नहीं दिखूँगा ।