जिसके हृदयमें हितका भाव है, उसके लिये ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् वसुधा (पृथ्वी) ही कुटुम्ब है । अपना कुटुम्ब ही
कुटुम्ब नहीं है, सारी पृथ्वीमात्र अपने
कुटुम्बी हैं । उसको कोई दुःख-कष्ट पहुँचाता है तो भी वह उसका सुख और हित
ही करता है । उमा संत कइ इहइ बड़ाई । मंद करत जो करइ भलाई ॥ सन्त सबका भला करता ही रहता है; वह दूसरोंके दोष नहीं देखता
है । दुःख देनेपर भी वह सुख ही देता है । जैसे‒गन्ना
कोल्हूमें पेरा जाय तो भी उससे मधुर-ही-मधुर रस निकलता है; क्योंकि उसमें मधुर रस
ही भरा है । ‘निष्पीडितोऽसि मधुरमुपवतीक्षुदण्डः’
इसलिये जिसके हृदयमें संसारके हितका भाव है, उसके द्वारा
सबका हित ही होता है । भाइयो और बहनो ! भगवान् आपसे कौड़ी एक चाहते नहीं । आप भाव
बदल दो, कौड़ी एक मत खर्च करना । एकान्तमें बैठे-बैठे भाव
बना लो कि सबका हित, कल्याण कैसे हो ? उससे आपका कल्याण हो जायगा । अपने लेनेका भाव रखोगे तो पतन
होगा । भीतरसे इच्छाका, दरिद्रताका त्याग कर दिया जाय तो मिलनेवाली
वस्तु बाकी नहीं रहेगी, वह तो मिलेगी ही । जो हमारी है, वह दूसरोंकी कैसे हो जायगी
? मेरी तो एक दूसरी धारणा है‒मैंने सन्तोंसे सुनी हैं,
पुस्तकोंसे पढ़ी है कि अगर लोभ मिट जाय, संग्रहकी इच्छा मिट जाय और जितना प्राप्त
है, उसका दुरुपयोग न करें तो नया प्रारब्ध बन जाय । नया प्रारब्ध बनकर वस्तुएँ मिलने लग जाएँ, भण्डार खुल जायँ । लोगोंके मनमें आती है कि इच्छा त्याग दें तो निर्वाह कैसे होगा ? बहुत बढ़िया रीतिसे
निर्वाह होगा । जिन लोगोंने हृदयसे लोभ छोड़ दिया है, उनके पास सैंकड़ों आदमी पेट
भरते हैं, उनके पास बहुत आता है ! बहुत आता है ! जबतक हम
वस्तुओं और रुपयोंके द्वारा अपनेको सफल समझते हैं और उनकी जरूरत मानते हैं, तबतक
वस्तुएँ तंगीसे आती हैं और दूर चली जाती है । जब हमारे जरूरत नहीं रहती, इच्छा
नहीं रहती तो वस्तुएँ अपने-आप सफल होनेके लिये आती हैं । वस्तुओंवाले धनी
व्यक्ति अपना धन और जीवन सफल करनेके लिये वहाँ वस्तुएँ ले जाते हैं कि यह ले ले,
जिससे हमारा जीवन सफल हो जाय । कहावत है‒‘घी तो आड़ा हाथा
ही पड़े, मांग्या घी थोड़ो मिले ।’ (भोजन पानेवाला जब घी परोसनेवालेको आड़ा
हाथ करके मना करता है कि नहीं चाहिये, उसको माँगके लेनेवालेकी अपेक्षा ज्यादा
परोसा जाता है ।) एक सन्त थे‒काला कपड़ा पहनते थे तो किसीसे जाकर कोयला माँगा
तो कोयला नहीं मिला (कपड़ा रंगनेके लिये) । उसी समय एक आदमी उनके लिये पकवान लाया
तो उन्होंने कहा‒‘मांग्या मिले न कोयला, बिन माँगे पकवान’
। माँगनेसे
मनुष्य तुच्छ हो जाता है, नीचा हो जाता है । धुर बिगड़ी सुधरे नहीं कोटि
करो उपाय । ब्रह्माण्डलों बढ़ गये, पर वामन नाम न जाय ॥ भगवान्का सबसे लम्बा अवतार हुआ, पर नाम तो वामन ही रहा; क्योंकि बलिसे माँगनेके लिये तो बावन अंगुलके छोटे हो गये । आदमी माँगने जाते ही छोटा हो जाता है । |