।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                   




           आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल द्वादशी, वि.सं.२०७७, शनिवा

“ गीता मे हृदयं पार्थ ”


श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान्‌ने व्यवहारमें परमार्थ-सिद्धिरूप विलक्षण कला दिखलायी है, जिससे हर एक वर्ण और हर एक आश्रमका मनुष्य भगवान्‌के शरण होकर शीघ्रातिशीघ्र सुगमतापूर्वक उन्हें प्राप्त कर सकता है । उस शरणागतिका ही भगवान्‌ने भगवद्भक्ति, भगवदाश्रय आदि शब्दोंसे वर्णन किया है । कहीं शरणागति कहकर आगे ‘भक्ति’ शब्द दे दिया है । (९/३२‒३४); कहीं भक्ति कहकर उसे शरणागति कह दिया है (११/५४-५५) । इससे मालूम होता है कि शरणागति और भक्तिमें अन्तर नहीं है ।

सम्पूर्ण गीतको छः-छः अध्यायोंके तीन षट्‌कोंमें विभक्त किया जा सकता है, जिनमें पहलेसे छठे अध्यायतक कर्मका, सातवेंसे बारहवें अध्यायतक उपासनाका और तेरहवेंसे अठारहवें अध्यायतक ज्ञानका वर्णन किया गया है । पहले षट्‌कमें जितने विस्तारके साथ कर्मकाण्डका वर्णन है, उतना दूसरे और तीसरे षट्‌कमें नहीं है । दूसरे षट्‌कमें जितना उपासनाका वर्णन किया गया है, उतना प्रथम और तृतीय षट्‌कमें नहीं और तीसरे षट्‌कमें ज्ञानका जितना विस्तृत वर्णन देखा जाता है, उतना प्रथम और द्वितीय षट्‌कमें नहीं । इसलिये पहले षट्‌कको कर्म-काण्डपरक, दूसरेको उपासना-काण्डपरक तथा तीसरेको ज्ञान-काण्डपरक कहा जा सकता है; परन्तु दूसरे षट्‌कमें अर्थात् सातवेंसे बारहवें अध्यायतक भगवान्‌ने ऐसी विलक्षणताके साथ भक्तिका वर्णन किया है, जिससे ज्ञान और कर्मका उतना सम्मिश्रण नहीं होने पाया है, जितना कि पहले षट्‌कमें कर्मका निरूपण करते हुए भी ज्ञान और भक्तिका हो गया है । तीसरे षट्‌कमें तो ज्ञानका वर्णन करते हुए पहले षट्‌ककी अपेक्षा भी कर्म और भक्तिका अधिक मिश्रण हुआ है । जैसे तेरहवें और चौदहवेंमें ज्ञानका तथा पंद्रहवें अध्यायमें भक्तिका वर्णन करके सोहलवेंमें दैवी सम्पत्ति और आसुरी सम्पत्तिका अर्थात् भक्तिके अधिकारी और अनधिकारियोंका वर्णन करते हुए सत्रहवें अध्यायमें तीन प्रकारकी श्रद्धाका विवेचन किया गया है, जो श्रद्धा कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनोंमें आवश्यक होती है । अठारहवें अध्यायमें कर्म, भक्ति और ज्ञान–तीनोंका विशुद्ध विवेचन है और अन्तमें भक्तिसे ही ग्रन्थका उपसंहार किया गया है । उपदेशका आरम्भ भी अर्जुनके शरणागत होनेपर ही हुआ है । इसलिये आदि और अन्तमें भी भक्तिकी ही पावन मन्दाकिनी प्रवाहित होती दिखायी देती है ।

ऐसे ही भगवद्गीताके मध्यमें भी सारभूत होनेसे भक्तिका वर्णन है । मध्यम भाग नवाँ और दसवाँ अध्याय होता है, इसलिये भगवान्‌ने उसमें अत्यन्त गोपनीय रहस्यका वर्णन करनेके कारण ही नवें अध्यायका ‘राजविद्याराजगुह्ययोग’ और दसवेंका ‘विभूतियोग’ नाम दिया है । भगवद्गीतामें जहाँ कहीं भी गुह्य, गुह्यतर, गुह्यतम, राजगुह्य, सर्वगुह्यतम और रहस्य आदि शब्द आये हैं, वहाँ भगवान्‌ने सगुणतत्त्वकी ओर ही निर्देश किया है; क्योंकि स्वयं भगवान्‌ होते हुए अपनेको छिपाकर मनुष्यके रूपमें लीला कर रहे हैं, यह गुप्त रहस्यकी बात है ।

दसवें अध्यायमें भगवान्‌ने अपनी दिव्य विभूतियोंका वर्णन किया है । इसलिये उसका नाम ‘विभूतियोग’ है । वे विभूतियों सगुणतत्त्वकी ही हो सकती हैं । उक्त दोनों अध्यायोंमें जो नवेंका अन्तिम और दसवेंका आदि भाग है, यही गीताके मध्यमें पड़ता है । इसलिये इसको गीताका ‘हृदय’ कह सकते हैं ।