।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                  




           आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७७, शुक्रवा
गीता-जयन्ती एवं मोक्षदा एकादशी 
“ गीता मे हृदयं पार्थ ”



श्रीगीता-जयन्तीके पावन अवसरपर सभी भगवद्‌प्रेमियोंको हार्दिक शुभकामनाएँ ! हम-सबका जीवन गीताजीके अनुरूप बन जायँ !

श्रीगीताका अध्ययन करनेवाले जिज्ञासु या तत्त्वालोचक विद्वान्‌के लिये इस बातपर ध्यान देनेकी विशेष आवश्यकता प्रतीत होती है कि वह अपनेको किसी मतमें ढालकर उसी दृष्टिसे गीताको न देखे–गीताका अर्थ अपने मतके अनुसार लगानेकी चेष्टा न करे, अपितु अपनेको गीताका अनुवर्ती बनानेके लिये उसके मूल श्लोकोंको तथा भावोंका मनन करे । गीतामें जैसा लिखा है, उसके अनुसार साधनात्मक विचार करते हुए परमात्माकी ओर अग्रसर होनेकी चेष्टा करनी चाहिये । उसके भावोंको समझनेके लिये भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराजके अनन्यशरण होकर ऐसा विश्वास निरन्तर बढ़ाता रहे कि अपने दिव्य वाणीका यथार्थ भाव भगवान्‌ मुझे अवश्य समझायेंगे तो वह अपने लिये परमोपयोगी भावोंको समझ सकेगा ।

युद्धारम्भके समय अपने स्वजन-बान्धवोंके नाशकी आशंकासे व्याकुल हुए अर्जुन भगवान्‌की शरणमें जाते हैं और उनसे प्रेय‒लौकिक उन्नति नहीं, अपितु अपने निश्चित श्रेय–कल्याणकी ही बात पूछते हैं–‘यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’ (२/७); ‘तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्’ (३/२); ‘यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्’ (५/१) तब भगवान्‌ सम्पूर्ण वेद और उपनिषद् आदिमें बताये हुए समस्त कल्याणमय साधनोंका सार श्रीगीताजीके रूपमें कहते हैं । च्‍ची बात तो यह है कि जो भगवान्‌ कहते हैं, वही सबका सार है । वेद और शास्त्रोंको आदर देनेके लिये ही भगवान्‌ने वेद, शास्त्रों तथा उपनिषदोंका प्रमाण दिया है (१३/४) । श्रीभगवान्‌ने उन शास्त्रोक्त साधनोंमें जो कुछ कमी दीखती थी, उसे पूरा किया, उनमें जो परस्पर विरोध प्रतीत होता था, उसका निराकरण किया और उन सिद्धान्तोंका परिमार्जन करके थोड़े ही शब्दोंमें उन्हें विस्तारपूर्वक बार-बार समझाया । एक ही बातको अनेक युक्तियोंसे समझानेपर भी विशेषता यह है कि पुनुरुक्तिका दोष नहीं आया और थोड़े शब्दोंमें कहनेपर भी कमी नहीं रही । कहीं-कहीं श्लोकार्धोंकी पुनुरुक्ति अवश्य आती है, किन्तु वह सहेतुक है । विचार करनेपर वहाँ बड़ी विलक्षणता जान पड़ती है ।

कल्याणकारी शास्त्रों तथा सम्प्रदायाचार्योंके सिद्धान्तोंमें अनेक मतभेद हैं–अद्वैत, द्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्ठाद्वैत, शुद्धाद्वैत आदि । इन सबका अन्तर्भाव अद्वैत और द्वैतमें ही किया जा सकता है । इन दोका ही वर्णन भगवान्‌ने सांख्य और योगनिष्ठाके नामसे किया है । इन दोनोंको अभेद और भेदमार्ग भी कह सकते हैं । सांख्यनिष्ठामें आत्मा और परमात्माका अभेद मानकर साधन किया जाता है । वह इस लेखका विषय न होनेसे उसे छोड़कर योगनिष्ठाका ही वर्णन किया जाता है; क्योंकि भक्ति योगनिष्ठाके अन्तर्गत है । भगवदाज्ञानुसार फल और आसक्तिको त्यागकर अपने कर्तव्यकर्मोंका पालन करना योगनिष्ठा है । योगनिष्ठा तीन प्रकारकी होती है–(१) कर्मप्रधान, (२) भक्तिमिश्रित तथा (३) भक्तिप्रधान ।

इन तीनोंमें भगवान्‌ने भक्तिप्रधान कर्मनिष्ठाकी ही अधिक प्रशंसा की है और स्पष्ट शब्दोंमें यह घोषित किया कि सब प्रकारके योगियोंमें मद्गतचित्त होकर श्रद्धापूर्वक मेरा भजन करनेवाला सर्वश्रेष्ठ–युक्ततम है (६/४७) ।