।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                 




           आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७७, गुरुवा
गीता-जयन्ती एवं मोक्षदा एकादशी कल है 
“ गीता मे हृदयं पार्थ ”


श्रीमद्भगवद्गीताकी महिमा अपार है । यह श्रीभगवान्‌की दिव्यवाणी है, इसके रचयिता स्वयं भगवान्‌ वेदव्यास हैं । सर्वविघ्न-विनाशक श्रीगणेशजी इसके लेखक हैं । सभी सम्प्रदायोंके प्रमुख आचार्योंने इसपर भाष्य लिखे हैं । इस ग्रन्थरत्नपर टीका लिखनेवाले अच्छे-अच्छे त्यागी तथा बहुत-से महात्मा पुरुष हो चुके हैं । अच्छे-से-अच्छे दिग्विजयी पण्डितोंने भी उसपर अपने भाव व्यक्त किये हैं । इतना ही नहीं, हिंदूधर्मको न माननेवाले विदेशी सज्जनोंने भी इसपर बहुत कुछ लिखा है । संसारमें श्रीमद्भगवद्गीतापर जितने भाष्य, टिकाएँ, लेख, समालोचनाएँ, प्रश्नोत्तर और विचार किए गये हैं, उतनी टिकाएँ और उतने विवेचन पृथ्वीमण्डलके अन्य किसी भी ग्रन्थपर नहीं हुए हैं । हाँ, बाइबलपर बहुत-से अनुवाद मिलते हैं और अब भी होते जा रहे हैं; परन्तु उसके इतने विस्तारके प्रधान कारण राजसत्ता तथा धनकी अधिकता ही हैं । श्रीमद्भगवद्गीताके विषयमें यह बात नहीं है । यह जड़ राज्य और ऐश्वर्यकी सहायताकी अपेक्षा नहीं रखती । इसमें तो ऐसी अलौकिक तथा विलक्षण शक्ति संनिहित है, जिससे यह जिस विचारशील विद्वान्‌के हाथों पड़ी, वही इसपर लिखनेके लिये बाध्य हो गया अर्थात् उसने बड़े प्रेम और आदरसे इसपर कुछ लिखकर अपनेको धन्य समझा और अपनी लेखनीको पवित्र किया ।

ऐसे अलौकिक ग्रन्थपर मेरे-जैसे एक साधारण व्यक्तिका कुछ कहना अथवा लिखना दुस्साहसमात्र है; परन्तु इसी बहाने पतितपावन भगवान्‌के पवित्रतम वाक्योंके यत्किंचित् मनन तथा अनुशीलनका अवसर मिल जाय, इस उद्देश्यसे यह बालचपलता की जाती है । विज्ञजन मेरी इस धृष्टताको क्षमा करें ।

श्रीमद्भगवद्गीतामें कर्म, भक्ति और ज्ञानकी त्रिवेणी लहरा रही है, इसके पद-पदमें अलौकिक अर्थ भरे हैं, जो पुरुष इस भगवन्मय ग्रन्थरत्नको जिस दृष्टिसे देखता है, उसको यह वैसा ही दृष्टिगोचर होता है । यथा–

जिन्ह की रही भावना जैसी ।

प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ॥

भगवद्विग्रहकी भाँती भगवद्वाणीकी भी यही बात है । कर्मप्रधान साधनवाले मनुष्योंको यह ग्रन्थ कर्मप्रधान ही प्रतीत होता है । इसमें आदिसे अन्ततक केवल कर्तव्य-कर्म करनेपर ही जोर दिया मालूम देता है । यदि कहीं भक्ति और ज्ञानका वर्णन है, तो यह गौण और कर्मोंका पोषक ही है । और यह बात युक्तिसंगत भी दीखती है । यहाँ युद्धस्थलमें कर्मशील अर्जुन तथा श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराजके द्वारा कर्मका विवेचन होना ही प्रासंगिक जान पड़ता है ।

भक्तिके पूज्यतम आचार्योंका कहना है कि भगवद्गीतामें केवल भक्तिका ही वर्णन है । कर्म और ज्ञान–दोनों इस भक्तिके ही सहायक हैं । ग्रन्थके आदि और अन्तपर विचार करनेसे इसी बातकी पुष्टि होती है । दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें अर्जुन जब शिष्यभावसे भगवान्‌के प्रपन्न (शरणागत) होकर उनसे श्रेयके लिये प्रार्थना करते हैं, तब भगवान्‌ उनकी शंकाओंका समाधान करके अन्तमें सर्वगुह्यतम उपदेश देते हुए कहते हैं कि ‘तू एकमात्र मेरी शरणमें आ जा । मैं सब पापोंसे तुझे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर’ (१८/६६) । इससे यह ग्रन्थ भगवद्भक्तिप्रधान ही सिद्ध होता है ।

इसी प्रकार अद्वैत-सिद्धान्तके आदरणीय आचार्य-चरणोंका कथन है कि इसमें सिद्धान्तरूपसे केवल ज्ञानका ही विवेचन किया गया है । कर्म और भक्तिका वर्णन तो मल और विक्षेपरूप अन्तःकरणके दोषोंको दूरकर ज्ञानका अधिकारी बनानेके लिये ही हुआ है । यह भी युक्तिसंगत और शास्त्रसम्मत है । भगवान्‌ने उपदेशका आरम्भ भी ज्ञानसे ही किया है (गीता २/११) । ज्ञानकी महिमा ही विशेषतासे कही है–‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ (गीता ४/३८) ।

ऐसी सर्वतोभद्र अलौकिक श्रीमद्भगवद्गीताका वास्तविक आशय एकमात्र भगवान्‌ ही जानते हैं । एक मनुष्य जो माप और तौलमें आ जाता है, उसके भावोंका अन्त पाना कठिन हो जाता है; फिर भगवान्‌ तो अनन्त, अपार और असीम हैं । अतः उनके भावोंका थाह कोई कैसे पा सकता है । तथापि–‘सब जानत प्रभु प्रभुता सोई । तदपि कहे बिनु रहा न कोई ॥’ इस उक्तिके अनुसार कुछ निवेदन किया जाता है । गीताका निष्पक्षभावसे विचार करनेपर ऐसा प्रतीत होता है कि इसमें कर्म, भक्ति और ज्ञानका पूर्णरूपेण विशद वर्णन किया गया है; कोई भी विषय अधूरा नहीं रहा है ।