तात्पर्य है कि अगर वस्तुएँ अपनी
दीखती हैं तो वे केवल दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये, सदुपयोग करनेके लिये अपनी
हैं । अगर व्यक्ति अपने दीखते हैं तो वे केवल निःस्वार्थभावसे सेवा करनेके लिये
अपने हैं । अपने सुख-आरामके
लिये कुछ भी अपना नहीं है । अपने सुख-आरामके लिये वस्तु-व्यक्तिको अपना
मानना जन्म-मरणका कारण है‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य
सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) । इसलिये जो
संसारमें कुछ भी अपना मानता है, उसको कुछ भी नहीं मिलता और जो कुछ भी अपना नहीं मानता, उसको
सब कुछ मिलता है अर्थात् भगवान् मिलते हैं । अपनी बुद्धि, विचार, सामर्थ्यसे वस्तुओंका
दुरुपयोग न करके उनका सदुपयोग करनेसे वस्तुओंसे माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है और
निःस्वार्थभावसे सेवा करनेसे व्यक्तियोंसे माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है । सम्बन्ध मिटनेसे मुक्ति हो जाती है । यहाँ शंका होती है कि
संसारसे सम्बन्ध विच्छेद हो जानेपर भी जीवन्मुक्त महापुरुष दूसरोंकी सेवा (हित)-में
क्यों लगे रहते हैं ? इसका समाधान है कि साधनावस्थामें ही उनका स्वभाव
प्राणिमात्रका हित करनेका रहा है‒‘सर्वभूतहिते रताः’
(गीता ५/२५, १२/४), इसलिये कुछ भी करना, जानना और पाना शेष न रहनेपर भी
उनमें सबका हित करनेका स्वभाव रहता है‒‘स्वभावस्तु
प्रवर्तते’ (गीता ५/१४) । तात्पर्य है कि दूसरोंका
हित करते-करते जब उनका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तब उनको हित करना नहीं
पड़ता, प्रत्युत पहलेके स्वभावसे उनके द्वारा स्वतः दूसरोंका हित होता है । भगवान्के सिवाय हम जिसको भी अपना मानते हैं, वह
अशुद्ध हो जाता है; क्योंकि
ममता ही मल (अशुद्धि) है‒‘ममता मल जरि जाइ’ (मानस ७/११७
क) । इतना ही नहीं, उसको अपना मानकर हम उसके
मालिक बनना चाहते हैं, पर वास्तवमें उसके गुलाम बन जाते हैं; उसको ठीक करना चाहते हैं, पर वास्तवमें वह बेठीक हो जाता
है । हम जिन शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहम् तथा स्त्री, पुत्र,
कुटुम्ब, धन, जमीन, मकान आदिको अपना मानते हैं, वे सब अशुद्ध हो जाते हैं और उनके सुधारमें बाधा लग जाती है । परन्तु उनको अपना न माननेसे
वे भगवान्की शक्तिसे शुद्ध हो जाते हैं, क्योंकि वास्तवमें वे भगवान्के ही हैं । तात्पर्य है कि वस्तुको अपना माननेसे वह अशुद्ध
हो जाती है और हम अनाथ तथा पराधीन हो जाते हैं । अगर हम वस्तुको अपना न मानें तो
वस्तु शुद्ध हो जायगी और हमें अपने सनाथपनेका तथा स्वाधीनताका अनुभव हो जायगा । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!! ‒‘सहज साधना’ पुस्तकसे |