।। श्रीहरिः ।।

                                                                            




           आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७७, गुरुवा
भगवान्‌में अपनापन

तात्पर्य है कि अगर वस्तुएँ अपनी दीखती हैं तो वे केवल दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये, सदुपयोग करनेके लिये अपनी हैं । अगर व्यक्ति अपने दीखते हैं तो वे केवल निःस्वार्थभावसे सेवा करनेके लिये अपने हैं । अपने सुख-आरामके लिये कुछ भी अपना नहीं है । अपने सुख-आरामके लिये वस्तु-व्यक्तिको अपना मानना जन्म-मरणका कारण है‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३/२१) । इसलिये जो संसारमें कुछ भी अपना मानता है, उसको कुछ भी नहीं मिलता और जो कुछ भी अपना नहीं मानता, उसको सब कुछ मिलता है अर्थात् भगवान् मिलते हैं ।

अपनी बुद्धि, विचार, सामर्थ्यसे वस्तुओंका दुरुपयोग न करके उनका सदुपयोग करनेसे वस्तुओंसे माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है और निःस्वार्थभावसे सेवा करनेसे व्यक्तियोंसे माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है । सम्बन्ध मिटनेसे मुक्ति हो जाती है । यहाँ शंका होती है कि संसारसे सम्बन्ध विच्छेद हो जानेपर भी जीवन्मुक्त महापुरुष दूसरोंकी सेवा (हित)-में क्यों लगे रहते हैं ? इसका समाधान है कि साधनावस्थामें ही उनका स्वभाव प्राणिमात्रका हित करनेका रहा है‒‘सर्वभूतहिते रताः’ (गीता ५/२५, १२/४), इसलिये कुछ भी करना, जानना और पाना शेष न रहनेपर भी उनमें सबका हित करनेका स्वभाव रहता है‒‘स्वभावस्तु प्रवर्तते’ (गीता ५/१४) । तात्पर्य है कि दूसरोंका हित करते-करते जब उनका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है, तब उनको हित करना नहीं पड़ता, प्रत्युत पहलेके स्वभावसे उनके द्वारा स्वतः दूसरोंका हित होता है ।

भगवान्‌के सिवाय हम जिसको भी अपना मानते हैं, वह अशुद्ध हो जाता है; क्योंकि ममता ही मल (अशुद्धि) है‒‘ममता मल जरि जाइ’ (मानस ७/११७ क) । इतना ही नहीं, उसको अपना मानकर हम उसके मालिक बनना चाहते हैं, पर वास्तवमें उसके गुलाम बन जाते हैं; उसको ठीक करना चाहते हैं, पर वास्तवमें वह बेठीक हो जाता है । हम जिन शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहम् तथा स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब, धन, जमीन, मकान आदिको अपना मानते हैं, वे सब अशुद्ध हो जाते हैं और उनके सुधारमें बाधा लग जाती है । परन्तु उनको अपना न माननेसे वे भगवान्‌की शक्तिसे शुद्ध हो जाते हैं, क्योंकि वास्तवमें वे भगवान्‌के ही हैं ।

तात्पर्य है कि वस्तुको अपना माननेसे वह अशुद्ध हो जाती है और हम अनाथ तथा पराधीन हो जाते हैं । अगर हम वस्तुको अपना न मानें तो वस्तु शुद्ध हो जायगी और हमें अपने सनाथपनेका तथा स्वाधीनताका अनुभव हो जायगा ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सहज साधना’ पुस्तकसे