।। श्रीहरिः ।।

                                                                           




           आजकी शुभ तिथि–
मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७७, बुधवा
भगवान्‌में अपनापन

वास्तवमें कोई भी मनुष्य अनाथ नहीं है । सब-के-सब मनुष्य सनाथ हैं । संसारमें प्रत्येक वस्तुका कोई-न-कोई मालिक होता है, फिर मनुष्यका कोई मालिक न हो‒यह कैसे हो सकता है ? जो सबके मालिक हैं, वे भगवान्‌ हमारे भी मालिक हैं । हम उनको अपना मालिक मानें या न मानें, जानें या न जानें, पर वे हमें अपना जानते ही हैं । अतः अपनेको अनाथ समझना हमारी भूल है ।

मनुष्यको अपनेमें अनाथपनेका अनुभव क्यों होता है ? जब वह किसी वस्तु-व्यक्तिको अपना मान लेता है, तब उसका अभाव होनेसे उसको अपनेमें अनाथपनेका अनुभव होने लगता है । यह नियम है कि जब मनुष्य अपनेको किसी वस्तु-व्यक्तिका मालिक मान लेता है, तब वह अपने मालिकको भूल जाता है । जैसे, बालक माँके बिना नहीं रह सकता; परन्तु जब वह बड़ा हो जाता है और स्त्री, पुत्र आदिको अपना मानने लगता है, तब वह उसी माँकी उपेक्षा करने लगता है । इसलिये गीतामें भगवान्‌ने शरीरको अपना माननेवाले अर्थात् अपनेको शरीरका मालिक माननेवाले जीवात्माको ‘ईश्वर’ नामसे कहा है‒‘शरीरं यदवाप्नोति यच्‍चाप्युत्क्रामतीश्वरः’ (१५/८)अगर मनुष्य भगवान्‌के सिवाय किसीको भी अपना न माने तो उसका भूलसे माना हुआ अनाथपना मिट जायगा और सनाथपनेका अनुभव हो जायगा ।

वास्तवमें भगवान्‌ ही सदासे अपने हैं । संसार पहले अपना नहीं था, पीछे अपना नहीं रहेगा और अब भी वह निरन्तर हमारेसे बिछुड़ रहा है । परन्तु भगवान्‌ पहले भी अपने थे, पीछे भी अपने रहेंगे और अब भी वे अपने हैं । वे हमें कभी नहीं मिलते तो भी अपने हैं, सर्वथा मिलते हैं तो भी अपने हैं और कभी मिलते हैं, कभी नहीं मिलते तो भी अपने हैं । परन्तु संसार सर्वथा मिला हुआ दीखनेपर भी अपना नहीं है । कारण कि जो सदा हमारे साथ नहीं रह सकता, वह अपना नहीं हो सकता । अपना वही हो सकता है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें अर्थात् जो हमारेसे कभी न बिछुड़े और हम उससे कभी न बिछुडें ।

एक बड़े आश्चर्यकी बात है कि संसारमें जिसको हम अपना मानते हैं, वह तो नहीं रहता, पर उससे माना हुआ अपनापन रह जाता है अर्थात् सम्बन्धी तो नहीं रहता, पर सम्बन्ध रह जाता है ! जैसे, किसी स्त्रीको विधवा हुए बहुत वर्ष बीत गये, पर पतिका नाम सुनते ही उसके कान खड़े हो जाते हैं अर्थात् पतिके न रहनेपर भी उसका पतिके साथ सम्बन्ध बना रहता है कि मैं अमुककी पत्नी हूँ । यहाँ शंका होती है कि पिताके न रहनेपर यदि पुत्र पितासे सम्बन्ध न माने तो वह श्राद्ध-तर्पण कैसे करेगा, जो कि शास्त्रका विधान है ? इसका समाधान है कि अपने स्वार्थके लिये, अपने सुखभोगके लिये माना हुआ सम्बन्ध ही बाँधनेवाला है । पितृऋण उतारनेके लिये, सेवा करनेके लिये माना हुआ सम्बन्ध बाँधनेवाला नहीं है, प्रत्युत सम्बन्ध-विच्छेद करनेवाला होता है ।[1]



[1] ऋणी और अपराधीकी जल्दी मुक्ति नहीं होती । फल-भोगसे अथवा दान-पुण्यादि शुभकर्मोंसे पाप तो नष्ट हो जाते हैं, पर ऋण और अपराध नष्ट नहीं होते । जिस व्यक्तिसे ऋण लिया है अथवा जिस व्यक्तिका अपराध किया है, वे माफ कर दें तभी ऋण और अपराधसे मुक्ति होती है । मूलमें संसारको अपना माननेसे ही मनुष्य ऋणी, गुलाम, अनाथ, तुच्छ तथा पतित होता है । जो संसारमें कुछ भी अपना नहीं मानता, वह किसीका ऋणी और अपराधी बनता ही नहीं; क्योंकि जब आधार ही नहीं रहेगा तो फिर ऋण, अपराध आदि कहाँ टिकेंगे‒ ‘मूलाभावे कुतः शाखा’ ?