।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                 




           आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल त्रयोदशी वि.सं.२०७७, मंगलवा
सब नाम-रूपोंमें एक ही भगवान्‌


भारतीय संस्कृतिमें सबसे मुख्य वेद माने जाते हैं । वे अपौरुषेय हैं, अनादि हैं और सदा रहनेवाले‒नित्य हैं । उनमें (कर्म, उपासना और ज्ञान) तीन काण्ड माने जाते हैं । उन्हीं तीनोंका विषद एवं विस्तृत वर्णन पुराण और इतिहास-ग्रन्थोंमें मिलता है, जिनकी रचना सुन्दर-सुन्दर कथाओंके द्वारा सर्वसाधारण जनताको गंभीर विषय सरलतासे समझानेके लिये श्रीवेदव्यासने कृपापूर्वक की है । ऐसे तो पुराण भी अनादि ही माने जाते हैं, पर इनका समय-समयपर जीर्णोद्धार होता रहा है । पुराणोंमें ही लेख मिलता है कि इनका कलेवर बहुत बड़ा था । उसको अल्पायु कलियुगी जीवोंके लिये संक्षिप्त रूप दिया गया है । इनमें सांसारिक तथा पारमार्थिक सर्वोपयोगी सभी विषयोंका बड़ा अच्छा वर्णन किया गया है । पढ़नेसे मालूम होता है कि दैवी सम्पत्ति, आसुरी सम्पत्ति, तीर्थ, व्रत, उपवास, यज्ञ, दान, तप, संयम, सेवा, आश्रमधर्म, वर्णधर्म, स्त्रीधर्म, सामान्यधर्म, राजधर्म, प्रजाधर्म, जाति, देश, काल, समय, सम्बन्ध, परिस्थिति आदिको लेकर अवश्यकर्तव्य-कर्म आदि-आदि विषयोंका गूढ़ आशयसहित विचित्र ढंगसे वर्णन हुआ है ।

साधारण रीतिसे देखनेपर कहीं-कहीं परस्पर बड़ा विरोध-सा मालूम देता है, जिसका साधारण मनुष्योंके द्वारा समाधान करना कठिन हो जाता है‒इतनी ही बात नहीं, अपितु अपने अविवेकके कारण पुराणोंकी बातें पक्षपातपूर्ण, अनर्गल एवं असत्य प्रतीत होती हैं, जिससे मनमें नास्तिकता आ जाती है; क्योंकि जब जहाँ तीर्थ, व्रत आदिकी महिमा वर्णन करने लगते हैं, वहाँ उसीको सर्वोपरि बतला दिया जाता है । जैसे‒श्रीगंगाजीकी महिमा आयी तो कहा‒इसके समान न सरयू हैं न तो पुष्कर है, न यमुना है, न तीर्थराज प्रयाग ही है; और तीर्थराजका वर्णन करने लगे तो कहा कि इसके समान और कोई तीर्थ है ही नहीं‒न गंगा है, न यमुना है, न सरयू है, न पुष्कर है । एक यही सम्पूर्ण तीर्थोंका राजा है । काशी-माहात्म्यमें आया है कि इस मोक्षदायिनी पुरीके समान तीर्थ इस त्रिलोकीमें कोई नहीं है । इसकी बराबरीमें न सरयू है, न यमुना है, न पुष्कर; क्योंकि यह भगवान्‌ शंकरके त्रिशूलपर बसी हुई है । ऐसे ही कार्तिक-माहात्म्य, वैशाख-माहात्म्य, मार्गशीर्ष-माहात्म्य तथा एकादशी आदि व्रतोंके विषयमें भी कथन है । इस प्रकार एकके द्वारा दूसरेका खण्डन हो जानेसे सबका खण्डन हो जाता है ।

कहीं-कहीं तो इसके अतिरिक्त भिन्न प्रकारसे कहा है कि तीर्थयात्राका फल साधारण है, व्रतका विशेष, व्रतसे इन्द्रियसंयमका और इन्द्रियसंयमसे भजन‒भगवच्‍चिन्तनका और अधिक एवं भगवत्प्रेमका उससे भी अत्याधिक है ।

धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः ।

नोत्पादयेद् यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥

(श्रीमद्भागवत १/२/८)

धर्मका ठीक-ठीक अनुष्ठान करनेपर भी यदि मनुष्यके हृदयमें भगवान्‌की लीला-कथाओंके प्रति अनुरागका उदय न हो तो वह निरा श्रम-ही-श्रम है । आदि-आदि ।