इसका समाधान करनेके लिये दो विभाग कर लेने चाहिये कि
पूर्वका विभाग निष्ठाकी दृष्टिसे है और दूसरा वर्णन
वस्तु-तत्त्व-दृष्टिसे । अतः इसमें कोई विरोध नहीं है । निष्ठाका तात्पर्य
है‒एक मनुष्यविशेषकी किसी इष्टपर हृदयकी दृढ़ धारणा । उस
धारणाको अत्याधिक दृढ़ करनेके लिये ही पहला वर्णन है । इससे हृदय-प्रधान साधककी
वृत्ति सब ओरसे हटकर एक इष्टमें लग जाती है और उसीमें सर्वोपरि अनन्य भावना हो
जाती है, ऐसा होनेसे जब सर्वोपरि परमात्मा प्रकट हो जाते हैं, तब या तो उसे सारा
यथार्थ तत्त्व भगवान् समझा देते हैं या स्वयं उसकी समझमें आ जाता है । कहा भी है‒ आदि अन्त जन अनँन्तके सारे कारज सोय । जँहि जिव नहचो धरै तँहि ढिग परगट होय ॥ फिर उसके लिये कुछ करना-जानना शेष नहीं रह जाता । वह
कृतकृत्य और ज्ञातज्ञातव्य हो जाता है । दूसरे प्रकारका वर्णन बुद्धिप्रधान तर्कशील
मनुष्योंके लिये है । उसपर
विश्वास करके चलनेवाला क्रमशः एकसे दूसरे और दूसरेसे तीसरे साधनद्वारा यथार्थ
स्थितिमें पहुँच जायगा । यदि तारतम्यताके विवेकद्वारा निःसंदिग्ध होकर तेजीसे चलता
रहेगा तो वह क्रमशः सब श्रेणियोंको पार करता हुआ उस पार पहुँचकर सदाके लिये
कृतकृत्य, ज्ञातज्ञातव्य हो जायगा । सिद्धान्ततः बात यह है कि
श्रीपरमात्मा एक हैं, वे ही अनेक जगह अनेक नामोंसे कहे गये हैं । वे अनेक जगह,
अनेक रूपोंमें रहते हुए भी हरेक जगह पूर्णरूपसे ही विराजमान हैं । जो उनको जिस
भावसे, जिस रूपमें, जिस प्रकार चाहता है, वह वैसा ही उनको प्राप्त कर लेता है; क्योंकि
वे भी उसे वैसे ही चाहते हैं । उनकी यह धोषणा है‒ ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् । (गीता ४/११) अतः कोई चाहे किसी भी रीतीसे उनको भजे, यदि आजतक किसीने भी
जिस प्रकारसे उपासना न की हो, ऐसे किसी नये ढंगकी उपासना भी कोई करे, तो भी
प्रेमकी पूर्णता होनेपर उसे परमात्माकी प्राप्ति अवश्य होगी, क्योंकि वह एकमात्र
अपने प्रियतम परमत्माको ही चाहता है । उनके लिये जो कनक, कामिनी, आराम, मान,
सत्कार, कीर्ति आदि लोक और परलोककी भोग-सामग्रियोंका त्याग करता है, किसी भी
नाशवान् पदार्थको नहीं चाहता, सच्ची हार्दिक लगनसे सर्वोत्तम परमपुरुष पुरुषोत्तम भगवान्को
चाहता है, ऐसे साधकसे बिना मिले वे कैसे रह सकते हैं । कहनेका अभिप्राय यह है कि सच्ची लगन और ईमानदारीके साथ जिस तत्त्वको मनुष्य सर्वश्रेष्ठ,
सर्वोपरि, सर्वथा पूर्ण मानता है, उसका वह चाहे कैसा ही नाम-रूप क्यों न मानता हो,
चाहे किसी भी प्रकार-विशेषसे उसकी सेवा, पूजा, उपासना क्यों न करता हो, भगवान्
उसको अपनी ही उपासना, सेवा और पूजा मानते हैं; क्योंकि सर्वोपरि तत्त्व एक है और
वही हैं भगवान् । साधककी समझमें भूल हो सकती है, परन्तु भगवान्के यहाँ तो भूल
नहीं होती । वे एकमात्र भावको ही देखते हैं । अतः
श्रद्धालु साधकको चाहिये कि भगवान्के किसी भी रूप और नामपर पूर्ण विश्वास करके
अनन्य प्रेमपूर्वक उनका स्मरण करता रहे, किसी भी अवस्थामें उनको भूले नहीं, तो
प्राप्ति भगवान्की ही होगी । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!! ‒ ‘जीवनका कर्तव्य’ पुस्तकसे |