एक परमात्मा ही सत्य हैं, शेष सब असत्य हैं । असत्यका अर्थ है‒जिसका अभाव हो । जो वस्तु नहीं है, वह असत्य कहलाती है । जिस वस्तुका अभाव होता है, वह दिखायी नहीं देती, पर संसार दिखायी देता है ।
फिर संसार असत्य कैसे ? वास्तवमें असत्य होते हुए
भी यह संसार सत्य-तत्त्व परमात्माके कारण ही सत्य प्रतीत होता है । तात्पर्य यह कि
इस संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । जैसे दर्पणमें मुख
दीखता तो है, पर वहाँ है
नहीं, ऐसे ही संसार दीखता तो है, पर वास्तवमें है नहीं । वास्तवमें एक परमात्माकी ही सत्ता
है । परमात्मा अपरिवर्तशील हैं और प्रकृति (संसार) निरन्तर परिवर्तनशील है । जिसमें निरन्तर परिवर्तनरूप क्रिया होती रहती है, उसका नाम प्रकृति है‒‘प्रकर्षेण करणं प्रकृतिः ।’ संसार तथा उसका अंश शरीर निरन्तर बदलनेवाले हैं,
और परमात्मा तथा उसका अंश जीव कभी नहीं बदलनेवाले हैं । न बदलनेवाला जीव बदलनेवाले संसारका आश्रय लेता है, उससे
सुख चाहता है‒यही गलती है ।
निरन्तर बदलनेवाला क्या न बदलनेवालेको निहाल कर देगा ? उसका साथ भी कबतक रहेगा ? अतः
संसारको अपना मानना, उससे लाभ
उठानेकी इच्छा रखना, उसपर भरोसा
रखना, उसका आश्रय लेना‒यह गलती है । इस गलतीका ही हमें सुधार करना है । इसीलिये गीतामें भगवान्ने कहा‒‘मामेकं शरणं व्रज’ ‘एक मेरी शरणमें आ ।’ हाँ, सांसारिक
वस्तुओंका सदुपयोग तो करो, पर उन्हें महत्त्व मत दो, सांसारिक वस्तुओंके
कारण अपनेको बड़ा मत मानो ।
पासमें अधिक धन होनेपर मनुष्य अपनेको बड़ा मान लेता है । पर
वास्तवमें वह बड़ा नहीं होता अपितु छोटा ही होता है । ध्यान दें, धनके कारण मनुष्य बड़ा हुआ, तो वास्तवमें वह स्वयं
(धनके बिना) छोटा ही सिद्ध हुआ ! धनका अभिमानी व्यक्ति अपना तिरस्कार व अपमान करके
तथा अपनेको छोटा करके ही अपनेमें बड़प्पनका अभिमान करता है । वास्तवमें आप स्वयं निरन्तर
रहनेवाले हैं और धन, मान, बड़ाई, प्रशंसा, नीरोगता, पद, अधिकार आदि सब आने-जानेवाले हैं । इनसे आप बड़े कैसे हुए ? इनके कारण अपनेमें बड़प्पनका अभिमान करना अपना पतन ही करना है । इसी प्रकार
निर्धनता, निन्दा, रोग आदिके कारण अपनेको
छोटा मानना भी भूल है । आने-जानेवाली वस्तुओंसे कोई छोटा
या बड़ा नहीं होता । |