नाशवान् पदार्थोंको महत्त्व देनेके कारण ही जन्म-मरणरूप
बन्धन, दुःख, सन्ताप, जलन आदि सब उत्पन्न होते हैं । अतः
भली-भाँति विचार करना चाहिये कि मैं तो निरन्तर रहनेवाला हूँ और ये पदार्थ
आने-जानेवाले हैं, अतः इन पदार्थोंके आने-जानेका असर मुझपर कैसे पड़ सकता है ? आप धनको पैदा करते हैं, न कि धन आपको । आप धनका उपयोग करते
हैं, न कि धन आपका । धन आपके अधीन है, आप धनके अधीन नहीं । आप धनके मालिक हो, धन
आपका मालिक नहीं । ये बातें सदा याद रखें । आप धनपति
बनें, धनदास नहीं‒इतनी ही बात है । धनको महत्त्व
देनेसे और धनके कारण अपनेको बड़ा माननेसे मनुष्य धनदास (धनका गुलाम) बन जाता है ।
इसीसे वह दुःख पाता है । अन्यथा आपको दुःख
देनेवाला है ही कौन ? धनादि पदार्थ तो आने-जानेवाले हैं, वे आपको
क्या सुखी और दुःखी करेंगे ? वे तो नदीके प्रवाहकी भाँति निरन्तर बहे जा रहे हैं ।
यदि आपकी धनवत्ता चालीस वर्ष रहनेवाली है और उसमेंसे एक वर्ष बीत गया, तो बताओ
आपकी धनवत्ता बढ़ी या घटी ? धनवत्ता तो निरन्तर घटती चली जा रही है और चालीस वर्ष
पूरे होते ही वह समाप्त हो जायगी । पर आप वैसे-के-वैसे ही रहते हैं । जब धन नहीं
था, तब भी आप वही थे और जब धन मिल गया, तब भी आप वही रहे तथा धन चला जाय, तब भी आप
वही रहेंगे । संसारकी वस्तुमात्र निरन्तर बही जा रही है
। जिस मनुष्यपर इन बहनेवाली वस्तुओंका असर नहीं पड़ता, वह मुक्त हो जाता है (गीता
२/१५) । इसलिये विवेकी पुरुष नाशवान् वस्तुओंमें रमण नहीं करता‒‘न तेषु रमते बुधः’ (गीता ५/२२) । जो वस्तुओंको अस्थिर
मानता है, वह वस्तुओंका गुलाम नहीं बनता । पदार्थोंको
लेकर सुखी या दुःखी होनेवाला मनुष्य अपनी स्थितिसे नीचे गिर ही गया, छोटा हो ही
गया । आने-जानेवाले पदार्थोंका असर न पड़ना ही वास्तविक बड़प्पन है । न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् । स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥ (गीता ५/२०) ‘जो पुरुष प्रियको प्राप्त होकर हर्षित नहीं
होता और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न नहीं होता, वह स्थिरबुद्धि संशयरहित ब्रह्मवेत्ता
पुरुष परब्रह्म परमात्मामें एकीभावसे नित्य स्थित है ।’ नारायण ! नारायण
!! नारायण !!! ‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे |