।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                    




           आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण प्रतिपदा वि.सं.२०७७, शुक्रवा

वास्तविक बड़प्पन


नाशवान्‌ पदार्थोंको महत्त्व देनेके कारण ही जन्म-मरणरूप बन्धन, दुःख, सन्ताप, जलन आदि सब उत्पन्न होते हैं । अतः भली-भाँति विचार करना चाहिये कि मैं तो निरन्तर रहनेवाला हूँ और ये पदार्थ आने-जानेवाले हैं, अतः इन पदार्थोंके आने-जानेका असर मुझपर कैसे पड़ सकता है ?

आप धनको पैदा करते हैं, न कि धन आपको । आप धनका उपयोग करते हैं, न कि धन आपका । धन आपके अधीन है, आप धनके अधीन नहीं । आप धनके मालिक हो, धन आपका मालिक नहीं । ये बातें सदा याद रखें । आप धनपति बनें, धनदास नहीं‒इतनी ही बात है । धनको महत्त्व देनेसे और धनके कारण अपनेको बड़ा माननेसे मनुष्य धनदास (धनका गुलाम) बन जाता है । इसीसे वह दुःख पाता है । अन्यथा आपको दुःख देनेवाला है ही कौन ? धनादि पदार्थ तो आने-जानेवाले हैं, वे आपको क्या सुखी और दुःखी करेंगे ? वे तो नदीके प्रवाहकी भाँति निरन्तर बहे जा रहे हैं । यदि आपकी धनवत्ता चालीस वर्ष रहनेवाली है और उसमेंसे एक वर्ष बीत गया, तो बताओ आपकी धनवत्ता बढ़ी या घटी ? धनवत्ता तो निरन्तर घटती चली जा रही है और चालीस वर्ष पूरे होते ही वह समाप्त हो जायगी । पर आप वैसे-के-वैसे ही रहते हैं । जब धन नहीं था, तब भी आप वही थे और जब धन मिल गया, तब भी आप वही रहे तथा धन चला जाय, तब भी आप वही रहेंगे । संसारकी वस्तुमात्र निरन्तर बही जा रही है । जिस मनुष्यपर इन बहनेवाली वस्तुओंका असर नहीं पड़ता, वह मुक्त हो जाता है (गीता २/१५) । इसलिये विवेकी पुरुष नाशवान्‌ वस्तुओंमें रमण नहीं करता‒‘न तेषु रमते बुधः’ (गीता ५/२२) । जो वस्तुओंको अस्थिर मानता है, वह वस्तुओंका गुलाम नहीं बनता । पदार्थोंको लेकर सुखी या दुःखी होनेवाला मनुष्य अपनी स्थितिसे नीचे गिर ही गया, छोटा हो ही गया । आने-जानेवाले पदार्थोंका असर न पड़ना ही वास्तविक बड़प्पन है ।

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् ।

स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥

(गीता ५/२०)

‘जो पुरुष प्रियको प्राप्त होकर हर्षित नहीं होता और अप्रियको प्राप्त होकर उद्विग्न नहीं होता, वह स्थिरबुद्धि संशयरहित ब्रह्मवेत्ता पुरुष परब्रह्म परमात्मामें एकीभावसे नित्य स्थित है ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे