।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                      




           आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण तृतीया वि.सं.२०७७, रविवा

त्यागसे सुखकी प्राप्ति


वास्तवमें इन सबसे हम प्रतिदिन विमुख होते हैं । कैसे ? जब हम संसारका काम करते-करते थक जाते हैं, तब संसारसे विमुख होनेकी मनमें आती है और हम नींद लेते हैं । इससे विश्राम मिलता है, शान्ति मिलती है, सुख-आराम मिलता है, ताजगी मिलती है, नीरोगता मिलती है । यह सब त्यागसे ही मिलते हैं । इतना ही नहीं, सांसारिक भोगोंका सुख भी भोगोंके त्यागसे मिलता है । पर इस तरफ खयाल न करनेसे भोगसे सुख मिलता दीखता है । वास्तवमें सुख भोगके संयोगसे नहीं अपितु वियोगसे होता है । भोगके संयोगका वियोग होनेसे सुख होता है । जैसे भोजन करनेसे सुख मालूम होता है, तो वास्तवमें सुखका अनुभव भोजनका त्याग करने अर्थात् भोजनकर चुकनेके बाद होता है, जब तृप्ति हो जाती है । भोग भोगनेसे जब उससे अरुचि होती है, तब सुख होता है । सुख होता है, तब अरुचि हो जाती है । पहले क्या होता है, इसे मनुष्य पहचान नहीं पाता । परन्तु त्यागसे सुख होता है, इसमें सन्देह नहीं; किंचिन्मात्र भी सन्देह नहीं । कितनी ऊँची-से-ऊँची सामग्रीसे संयोग हो, उसके द्वारा परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति नहीं हो सकती । परमात्माको सभी समान रूपसे प्राप्त कर सकते हैं, चाहे वे किसी देश, वेश, सम्प्रदाय, धर्म आदिके क्यों न हों । केवल परमात्माको पानेकी उत्कट चाहना होनी चाहिये । परमात्मप्राप्तिकी चाहनाकी पहचान है‒दूसरी किसी वस्तुको न चाहना । पर परमात्माको भी चाहता है और दूसरी वस्तुओंको भी चाहता है, तबतक प्राप्ति नहीं होगी । जो निर्द्वन्द्व होता है, वही सुखपूर्वक मुक्त होता है‒‘निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते’ (गीता ५/३) । इच्छा-द्वेषसे उत्पन्न हुआ यह द्वन्द्व ही मोह है, इसीसे सब फँसे हुए हैं‒

इच्छाद्वेषसमुत्थेन      द्वन्द्वमोहेन भारत ।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥

(गीता ७/२७)

जो इस द्वन्द्वरूप मोहसे रहित हैं, वे दृढ़ निश्चय करके भगवान्‌का भजन करते हैं‒‘ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः’ (गीता ७/२८) ।

सांसारिक दृष्टिसे अयोग्यताकी अपेक्षा योग्यता बहुत श्रेष्ठ है, पापकी अपेक्षा पुण्य बहुत श्रेष्ठ है, पर इस श्रेष्ठतासे कोई परमात्माको खरीद ले, ऐसी बात नहीं है । इसलिये जो सच्‍चे हृदयसे परमात्माको चाहता है, वह अपनी स्थितिका त्याग कर देता है, उससे विमुख हो जाता है । विमुख होते ही उसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है । अपनी जो स्थिति है, अपना जो व्यक्तित्व है, अपनी जो योग्यता या अयोग्यता है, उसे पकड़नेसे ही परमात्मप्राप्तिमें बाधा हो रही है । इसलिये उस सत्य-तत्त्वको प्राप्त करनेके लिये कोई अनधिकारी, अयोग्य, अपात्र नहीं है । केवल उत्पत्ति-विनाशवाली वस्तुकी पकड़ ही उसमें बाधा दे रही है । अपनी पकड़ छोड़ी कि प्राप्ति हुई ।