जब भूख लगती है, तब भोजनमें सुख मिलता है‒यह निर्विवाद बात
है । ध्यान दें, पहला ग्रास लेनेमें जो सुख मिलता है,
पाँच-दस ग्रास लेनेके बाद क्या वही सुख रहता है ? ज्यों-ज्यों हम भोजन करते
चले जाते हैं, त्यों-ही-त्यों भोजनका सुख कम होता चला जाता है । अन्तमें जब भूख
समाप्त हो जाती है, तृप्ति हो जाती है, तब भोजन आपको सुख देता है क्या ? जब भूख
मिट जाय, तब ग्रास लेकर देखो कि क्या वह सुख देता है । सुखका आरम्भ रुचिसे हुआ था । इसलिये सांसारिक भोग तब सुख
देंगे, जब आप उनके बिना दुःखी होंगे । जिसके बिना आप दुःखी नहीं होते, वह कभी आपको
सुख नहीं दे सकता । तो यह संसार दुःखीको सुख देता है और सुख देकर वह मनुष्यको
बाँधता है । केवल वहम रहता है कि अमुक पदार्थसे सुख मिला । अब
अरुचिसे सुख कैसे मिलता है‒यह बात समझें । किसी
भोगमें अरुचि हुए बिना क्या आप उस भोगका त्याग करते हैं ? जब अरुचि होती है, तभी
त्याग होता है । जबतक अरुचि न हो, तबतक सुख नहीं होता और जबतक रुचि रहती है, तबतक
सुख होता है । यह बात मैंने पहले ही कह दी कि अरुचिसे सुख होता है या सुखसे अरुचि
होती है‒इसका विश्लेषण जरा कठिन है, पर बातें दोनों सही हैं । भोग भोगते-भोगते उससे
अरुचि होती ही है । अब आप ध्यान दें । अरुचिका अर्थ
है‒सम्बन्ध विच्छेद । भोगसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है तो सुख होता है ।
सम्बन्ध-विच्छेद क्या है‒यह खास समझनेकी बात है । विच्छेदका
तात्पर्य है उस भोगको भोगनेकी शक्तिका नाश कि अब आगे भोग नहीं सकते । तो शक्तिका
नाश होनेसे ही अरुचि और सुख दोनों हुए । यदि शक्तिका नाश न होता तो अरुचि
कैसे होती ? तात्पर्य
यह है कि वह सुख भोगका नहीं है अपितु शक्तिके नाश अर्थात् थकावटका है ।
बहुत दौड़नेके बाद जब बैठते हैं, तो सुख मालूम होता है । तो सुख थकावटका है । अतः
भोग भोगनेकी शक्तिके नाशका नाम ही सुख हुआ । नाश कहो या अरुचि कहो । भोगी पुरुष भोग्य वस्तुका तो नाश करता है और अपना पतन करता है
। विरक्त पुरुष ऐसा नहीं करता । मनुष्य भोगमें सुख मानकर भोगका त्याग नहीं
करता, इसलिये न तो भोगके अन्तमें होनेवाली अरुचि स्थायी कर पाता है और न त्यागके
सुखको ही स्थायी कर पाता है । यदि वह समझ ले कि भोगोंसे
सम्बन्ध-विच्छेदमें सुख है तो फिर वह भोगोंमें फँसेगा नहीं । नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒ ‘तात्त्विक प्रवचन’ पुस्तकसे |