जो सच्चे सन्त होते हैं, वे अपनी ओरसे किसीको अपना चेला
नहीं बनाते । पारस तो
लोहेको सोना बनाता है, अपने समान (पारस) नहीं बनाता; परन्तु सन्त दूसरेको भी अपने
समान (सन्त) ही बनाते हैं‒ पारस में अरु संत
में, बड़ो अंतरो जान । वह लोहा कंचन करे, यह कर आपु समान ॥ ऐसे सच्चे सन्तका चेला बनना गुलामी नहीं है, प्रत्युत गुरुभक्ति है ।
ऐसा गुरुभक्त दुनियाका गुरु हो जाता है । परन्तु जिस
सन्तके मनमें यह बात आती है कि मेरे इतने चेले हैं, इसलिये मैं बड़ा हूँ अथवा उसमें
दूसरेको अपना चेला बनानेकी इच्छा होती है तो वह वास्तवमें चेलादास है, गुरु नहीं
है । सच्चा गुरु चेलेके अधीन नहीं होता, चेलेके कारण अपनेको बड़ा नहीं मानता और चेलेको
अपने अधीन नहीं बनाता । उसका यह स्वभाव भी भगवान्से ही आया है । भगवान्पर विश्वास करनेसे ही मनुष्य
बड़ा होता है । भगवान्के सिवाय वह कहीं भी विश्वास करेगा तो उसकी फजीती-ही-फजीती
होगी । इसलिये संसार विश्वास करनेयोग्य नहीं है । उसकी तो सेवा करना अथवा
विचारपूर्वक त्याग करना ही उचित है । कर्मयोगी संसारको सच्चा मानकर निष्कामभावसे संसारकी ही वस्तुको संसारकी सेवामें
लगा देता है और ज्ञानयोगी आत्माको ही सच्चा मानकर विचारपूर्वक शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद करके असंगताका
अनुभव करता है तो उन दोनोंकी मुक्ति हो जाती है । तात्पर्य है कि जो ईश्वरको न
मानकर कर्मयोग अथवा ज्ञानयोगका साधन करते हैं, उनकी भी मुक्ति हो जाती है,
पराधीनता मिट जाती है । परन्तु भक्ति (प्रेम)-की प्राप्ति तो ईश्वरको सच्चा माननेसे ही होती है । मुक्तिमें संसारका सम्बन्ध छूटता है
और भक्तिमें भगवान्से सम्बन्ध जुड़ता है ।
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