मैं तो भगवान्के शरण हो गया । जैसे कन्यादान करनेपर लड़की
समझ लेती है मेरा तो विवाह हो गया । बस एकसे सम्बन्ध हो गया । अब उम्रभर यह अटल
अखण्ड सम्बन्ध है । इस सम्बन्धके बाद चाहे पति रहे, न रहे, वह आदर करे, अनादर करे,
छोड़ दे, संन्यासी हो जाय । हमारी भारतकी नारी ऐसी है कि
जिस एकको स्वीकार कर लिया, तो कर लिया । इसीका दृष्टान्त सन्तोंने दिया है
कि‒ पतिव्रता रहे
पतिके पासा । यूं साहिबके ढिग रहे दासा ॥ दास भगवान्के पास ऐसे रहे
जैसे पतिव्रता रहती है । उसके एक ही मालिक; एक ही तरफ उसका विचार रहता है । उसकी राजीमें राजी । उसकी
सेवा करना । एकइ धर्म एक
ब्रत नेमा । कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ॥ (मानस ३/४/६) उसका एक ही धर्म है, एक ही व्रत है, एक ही नियम है‒शरीर,
मन, वाणीसे केवल पतिके चरणोंमें प्रेम । इसी तरह भगवान्की शरण होना । एक ही व्रत
कि मैं भगवान्का हूँ । भगवान्का धर्म, भगवान्की आज्ञा, भगवान्की अनुकूलता‒वही
धर्म है । केवल भगवान्का ही मैं हूँ और किसीका नहीं । ‘और
किसीका नहीं हूँ’‒इसका तात्पर्य क्या है ? किसीसे किंचिन्मात्र कभी भी कुछ लेना
नहीं । किसीसे किंचिन्मात्र भी कोई अभिलाषा नहीं रखनी है । जैसे पतिव्रता
होती है वह घरमें सबकी सेवा करती है । सास, ससुर, देवर, जेठ, जेठानी, देवरानी, ननद
आदिकी सेवा करती है । समयपर अतिथि-सत्कार भी करती है । साधुओंको भी भिक्षा देती
है; परन्तु अपना सम्बन्ध किसीके साथ नहीं । देवर, जेठ आदिसे सम्बन्ध है तो पतिके
नातेसे ही है । स्वतन्त्र सम्बन्ध किसीसे कुछ भी नहीं । इसी तरहका व्रत ले लें कि केवल भगवान्से
ही मेरा सम्बन्ध है और किसीसे कुछ सम्बन्ध नहीं है । नियम है तो भगवान्के भजनका और भगवान्के शरण होनेका । एक यही नियम है ।
ऐसे अनन्यभावसे भगवान्के शरण हो जाय, किसी अन्यका आश्रय न रहे । दूसरोंकी सेवा करनेमें, काम कर देनेमें,
शास्त्रके अनुसार सुख पहुँचानेमें दोष नहीं है । दोष है अपने लिये कुछ चाहनेमें,
भगवान्के शरण होनेपर किसीसे कभी भी किंचिन्मात्र
भी चाहना न हो । ‘मोर दास कहाइ नर आसा । करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा ॥’ (मानस ७/४५/२) भगवान्का
दास कहलवाकर किसीसे किंचिन्मात्र भी आशा रखता है तो वह भगवान्का दास कहाँ हुआ ?
जिस चीजकी आशा रखता है, उसीका दास है । भगवान्का दास नहीं है । वह धन, सम्पत्तिका दास है, भगवान्का दास नहीं है ।
भगवान्को तो एक साधन मानता है । वह भगवद्भक्त नहीं है । ऐसे किसीसे किंचिन्मात्र
भी कुछ नहीं चाहता । न आशा है, न भरोसा है, न बल है, न उसका किसीसे सम्बन्ध है ।
ऐसे केवल अनन्यभावसे मेरे शरण हो जाय और शरण होकर फिर निश्चिन्त हो जाय ।
‘मा शुचः’ का अर्थ है किसी विषयकी चिन्ता मत कर । किसी बातकी
कोई चिन्ता आ जाय तो कह दे कि भाई ! मैं चिन्ता नहीं करूँगा । तो चिन्ता मिट जायगी
। दृढ़ता रहनेपर चिन्ता आ भी जायगी तो ठहरेगी नहीं । चिन्ता तभीतक आती है, जबतक आप
अपनेमें कुछ बलका अभिमान रखते हैं । |

