।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                             




           आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण एकादशी वि.सं.२०७७, रविवा
षट्‌तिला एकादशी व्रत (स्मार्त)
वैष्णव एकादशी-व्रत कल है

शरणागति


भगवान्‌से कुछ भी चाहता है कि मेरे ऐसा हो जाय तो वह भगवान्‌से अलग रहता है । जैसे एक अरबपतिका लड़का पितासे कहे कि मेरेको दस हजार रुपये मिल जायँ । इसका अर्थ होता है कि वह पितासे अलग होना चाहता है । वास्तवमें करोड़ों, अरबों मेरे ही तो हैं । मेरेको कुछ नहीं लेना है । लेनेकी इच्छा होती है तो वह भगवान्‌से अलग कर देती है, भगवान्‌की आती हुई कृपामें आड़ लगा देती है । जैसे बिल्लीका बच्चा होता है, उसे अपना खयाल ही नहीं रहता कि कहाँ जाना है, क्या करना है । वह तो अपनी माँपर निर्भर रहता है । बिल्ली उसे पकड़ लेती है तो बच्चा अपने पंजे सिकोड़ लेता है । कुछ भी बल नहीं करता । अब जहाँ मर्जी हो वहाँ रख दे, चाहे जहाँ ले जाय, उस बिल्लीकी मर्जी । ऐसे ही भगवान्‌का भक्त उनकी तरफ देखता है । उनके विधानमें प्रसन्न रहता है । उसे सुख-दुःख, सम्पत्ति-विपत्ति, संयोग-वियोग, आदर-निरादर, प्रशंसा-निन्दासे कोई सरोकार ही नहीं । अपनी तरफसे कोई चिन्ता नहीं, विचार आ जाय तो भगवान्‌को पुकारे, ‘हे नाथ ! मैं क्या करूँ ?’ इस तरह चिन्ता छोड़कर उनके शरण हो जाय ।

प्रश्न‒शरणागतका जीवन कैसा होता है ?

उत्तर‒गीताके अनुसार कर्त्तव्य-कर्मका त्याग नहीं करना चाहिये, अपितु सम्पूर्ण धर्मोंको अर्थात् कर्मोंको भगवान्‌के अर्पण करना ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है । जब सम्पूर्ण कर्म भगवान्‌के समर्पण करके भगवान्‌के शरण होना है तो फिर अपने लिये धर्मके निर्णयकी जरूरत ही नहीं रही ।

मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌ मेरे हैं‒इस अपनेपनके समान योग्यता, पात्रता, अधिकार आदि कोई भी नहीं है, यह सम्पूर्ण साधनोंका सार है । इसलिये शरणागतको अपनी वृत्तियों आदिकी तरफ न देखकर भगवान्‌के अपनेपनकी तरफ ही देखते रहना चाहिये ।

भगवान्‌ कहते हैं‒मेरे शरण होकर तू चिन्ता करता है, यह मेरे प्रति अपराध है, शरणागतिमें कलंक है और इसमें तेरा अभिमान है । मेरे शरण होकर मेरा विश्वास और भरोसा न रखना‒यही मेरे प्रति अपराध है और अपने दोषोंकी चिन्ता करना तथा मिटानेमें अपना बल मानना‒यह तेरा अभिमान है । इनको तू छोड़ दे । तेरे आचरण, वृत्तियों, भाव शुद्ध नहीं हुए हैं, दुर्भाव पैदा हो जाते हैं और समयपर दुष्कर्म भी हो जाते हैं तो भी तू इनकी चिन्ता मत कर । इन दोषोंकी चिन्ता मैं करूँगा ।

भगवान्‌ जो विधान करते हैं, वह संसारके सम्पूर्ण प्राणियोंके कल्याणके लिये ही करते हैं । बस, शरणागतकी इस तरफ दृष्टि हो जाय तो फिर उसके लिये कुछ करना बाकी नहीं रहता ।

जो मनुष्य सच्चे हृदयसे प्रभुकी शरणागतिको स्वीकार कर लेता है तो उसका यह शरण-भाव स्वतः ही दृढ़ होता चला जाता है ।

भगवान्‌ भक्तके अपनेपनको ही देखते हैं, उसके गुण-अवगुणोंको नहीं देखते अर्थात् भगवान्‌को भक्तके दोष दीखते ही नहीं ।