।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                                                                        




           आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७७, सोमवा

प्रेम


साधक जिसको अपना मान लेता है, उसमें उसकी प्रियता स्वत: हो जाती है । परन्तु वास्तविक अपनापन उस वस्तुमें होता है, जिसमें ये चार बातें हों- ) जिससे हमारी सधर्मता अर्थात् स्वरूपगत एकता हो । २) जिसके साथ हमारा सम्बन्ध नित्य रहनेवाला हो । ३) जिससे हम कभी कुछ न चाहें । ४) हमारे पास जो कुछ है, वह सब जिसको समर्पित कर दें । ये चारों बातें भगवान्‌में ही लग सकती हैं । (अध्याय २/३० परिशिष्ट भाव)

संसारके किसी एक विषयमें ‘राग’ होनेसे दूसरे विषयमें द्वेष होता है, पर भगवान्‌में ‘प्रेम’ होनेसे संसारसे वैराग्य होता है । (अध्याय ३/३४)

शुद्ध स्वरूपमें अपने अंशी परमात्माकी ओर स्वतः एक आकर्षण या रुचि विद्यमान रहती है, जिसको ‘प्रेम’ कहते हैं । जब वह संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह ‘प्रेम’ दब जाता है और ‘काम’ उत्पन्न हो जाता है । जबतक ‘काम’ रहता है, तबतक ‘प्रेम’ जाग्रत् नहीं होता । जबतक ‘प्रेम’ जाग्रत् नहीं होता, तबतक ‘काम’ का सर्वथा नाश नहीं होता । (अध्याय ३/४२ मार्मिक बात)

अहंकार-रहित होकर नि:स्वार्थभावसे कहीं भी प्रेम किया जाय, तो वह प्रेम स्वतः प्रेममय भगवान्‌की तरफ चला जाता है । कारण कि अपना अहंकार और स्वार्थ ही भगवत्प्रेममें बाधा लगाता है । इन दोनोंके कारण मनुष्यका प्रेमभाव सीमित हो जाता है और इनका त्याग करनेपर उसका प्रेमभाव व्यापक हो जाता है । (अध्याय ४/११ विशेष बात)

जो अन्तरात्मासे भगवान्‌में लग जाता है, भगवान्‌के साथ ही अपनापन कर लेता है, उसमें भगवत्प्रेम प्रकट हो जाता है । वह प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान है तथा सापेक्ष वृद्धि, क्षति और पूर्तिसे रहित है । (अध्याय ६/४७)

एकमात्र प्रेम ही ऐसी चीज है, जिसमें कोई भेद नहीं रहता । प्रेमका भेद नहीं कर सकते । प्रेममें सब एक हो जाते हैं । ज्ञानमें तत्त्वभेद तो नहीं रहता, पर मतभेद रहता है । प्रेममें मतभेद भी नहीं रहता । अत: प्रेमसे आगे कुछ भी नहीं है । प्रेमसे त्रिलोकीनाथ भगवान् भी वशमें हो जाते हैं । (अध्याय ७/१० परिशिष्ट भाव, टिप्पणी)

सन्तोंकी वाणीमें आता है कि प्रेम तो केवल भगवान् ही करते हैं, भक्त केवल भगवान्‌में अपनापन करता है । कारण कि प्रेम वही करता है, जिसे कभी किसीसे कुछ भी लेना नहीं है । भगवान्‌ने जीवमात्रके प्रति अपने-आपको सर्वथा अर्पित कर रखा है और जीवसे कभी कुछ भी प्राप्त करनेकी इच्छाकी कोई सम्भावना ही नहीं रखी है । इसलिये भगवान् ही वास्तवमें प्रेम करते हैं । जीवको भगवान्‌की आवश्यकता है, इसलिये जीव भगवान्‌से अपनापन ही करता है । (अध्याय ७/१६)

जब भक्त सर्वथा निष्काम हो जाता है अर्थात् उसमें लौकिक-पारलौकिक किसी तरहकी भी इच्छा नहीं रहती, तब उसमें स्वतःसिद्ध प्रेम पूर्णरूपसे जाग्रत् हो जाता है । (अध्याय ७/१७) प्रेम कभी समाप्त भी नहीं होता; क्योंकि वह अनन्त और प्रतिक्षण वर्धमान है । प्रतिक्षण वर्धमानका तात्पर्य है कि प्रेममें प्रतिक्षण अलौकिक विलक्षणताका अनुभव होता रहता है अर्थात् इधर पहले दृष्टि गयी ही नहीं, इधर हमारा खयाल गया ही नहीं, अभी दृष्टि गयी‒इस तरह प्रतिक्षण भाव और अनुभव होता रहता है । (अध्याय ७/१७)

‘वासुदेव सर्वम्’ का अनुभव होनेपर फिर भक्त और भगवान्‒दोनोंमें परस्पर प्रेम-ही-प्रेम शेष रहता है । इसीको शास्त्रोंमें प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम, अनन्तररस आदि नामोंसे कहा गया है । (अध्याय ७/१७ परिशिष्ट भाव)

प्रेममें प्रेमी अपने-आपको प्रेमास्पदपर न्योछावर कर देता है अर्थात् प्रेमी अपनी अलग सत्ता नहीं मानता । ऐसे ही प्रेमास्पद भी स्वयं प्रेमीपर न्योछावर हो जाते हैं । (अध्याय ७/१८)

ज्ञानमार्गका जो अद्वैतभाव है, वह नित्य-निरन्तर अखण्डरूपसे शान्त, सम रहता है । परन्तु प्रेमका जो अद्वैतभाव है, वह एक-दूसरेकी अभिन्नताका अनुभव कराता हुआ प्रतिक्षण वर्धमान रहता है । प्रेमका अद्वैतभाव एक होते हुए भी दो है और दो होते हुए भी एक है । इसलिये प्रेम-तत्त्व अनिर्वचनीय है । (अध्याय ७/१८)

प्रेमीका प्रेमास्पदकी तरफ और प्रेमास्पदका प्रेमीकी तरफ प्रेमका एक विलक्षण प्रवाह चलता रहता है । उनका नित्ययोगमें वियोग और वियोगमें नित्ययोगइस प्रकार प्रेमकी एक विलक्षण लीला अनन्तरूपसे अनन्तकालतक चलती रहती है । उसमें कौन प्रेमास्पद है और कौन प्रेमी हैइसका खयाल नहीं रहता । वहाँ दोनों ही प्रेमास्पद हैं और दोनों ही प्रेमी हैं । (अध्याय ७/१८)

('साधक-संजीवनी' पुस्तकसे)