।। श्रीहरिः ।।

                                                                                                                                                                                             




           आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.२०७७, शनिवा

मानव-जीवनका उद्देश्य


एक आदमी ऊँटपर चढ़कर अपने गाँव जा रहा था । रात्रिके समय वह एक गाँवमें पहुँचा । वहाँ एक जगह ब्याह हो रहा था, ढोल-बाजे बज रहे थे । वह आदमी ब्राह्मण था । उसने वहाँ जाकर देखा तो पता चला कि ‘भूर’ बँटनेवाली है । ‘भूर’ को संस्कृतमें भूयसी (विशेष) दक्षिणा कहते हैं, जो ब्याहके समय ब्राह्मणोंको दी जाती है । वह ब्राह्मण ऊँटको बाहर खड़ा करके ‘भूर’ लेनेके लिये भीतर चला गया । चोरोंने ऊँटको बाहर देखा तो वे उसको भगाकर ले गये । इधर ‘भूर’ बँटी तो सब ब्राह्मणोंको चार-चार आना मिले । चार आने लेकर वह ब्राह्मण बाहर आया तो देखा कि ऊँट नहीं है ! इधर चार आने मिले और उधर चार-पाँच सौ रुपयोंका ऊँट गया ! इस तरह संसारमें तो तुच्छ सुख मिला, थोड़ा धन मिल गया, थोड़ा मान मिल गया, थोड़ा आदर मिल गया, थोड़ा बढ़िया भोजन मिल गया, पर उधर ऊँट चला गया‒परमात्माकी प्राप्ति चली गयी । यह दशा है‒तुच्छ सुखमें महान्‌ सुख जा रहा है । थोड़े-से आदर-सत्कारमें राजी हो जाते हैं । एक सन्तको किसीने कहा कि हम आपका आदर करते हैं, तो वे बोले‒धूल आदर करते हो तुम । हमारा आदर भगवान्‌ करते हैं, तुम क्या कर सकते हो ? सब मिलकर भी क्या आदर करोगे ? वास्तवमें सन्तोंका सम्मान भगवान्‌ करते हैं । दूसरा बेचारा क्या जाने सम्मान क्या होता है ?

आप जो सर्वोपरि लाभ चाहते हैं, यही वास्तवमें परमात्मतत्त्वकी इच्छा है । इस इच्छाको चाहे जो कह दो, ज्ञानकी इच्छा कह दो, प्रेमकी इच्छा कह दो, सुखकी इच्छा कह दो, भगवद्दर्शनकी इच्छा कह दो, भगवत्प्राप्तिकी इच्छा कह दो, एक ही बात है । यही हमारा लक्ष्य है । इस लक्ष्यपर डटे रहें । अधूरेमें राजी न हों । अधूरेमें नहीं अटकोगे तो पूरा मिल जायगा । अधूरेको ले लोगे तो फिर वहीं अटक जाओगे ।

यह मनुष्यशरीर उत्तम-से-उत्तम है, अतः इसका लक्ष्य भी उत्तम-से-उत्तम होना चाहिये, जिससे बढ़कर और कोई लक्ष्य न हो । इससे सिद्ध होता है कि परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही मानव-जीवन मिला है ।

श्रोता‒संसारका सुख छोड़नेसे सर्वोपरि तत्त्व मिल ही जायगा, इसका क्या पता ? इधरका तो छोड़ दें और उधरका मिले ही नहीं, तो फिर रीते रह जायँगे न ?

स्वामीजी‒अर्जुनने भी यही प्रश्न किया था कि अगर साधकको योगकी प्राप्ति न हो और बीचमें ही मर जाय तो उस बेचारेकी क्या गति होती है ? क्या वह उभयभ्रष्ट हो जाता है ? (गीता ६/३७-३८) संसारको तो छोड़ दिया और परमात्मा मिले नहीं, तो क्या बीचमें ही लटकता रहेगा ? भगवान्‌ बोले‒नहीं पार्थ ! उसका न तो इस लोकमें और न परलोकमें ही पतन होता है, क्योंकि हे प्यारे ! जो थोड़ा भी कल्याणकारी काम करता है, उसकी दुर्गति नहीं होती (गीता ६/४०) । आपको पारमार्थिक मार्गपर ठीक चलनेवाला कोई साधक मिल जाय तो आपको खुदको मालूम होगा । उसकी मस्ती, उसका आनन्द आपको विलक्षण दिखेगा । साधना करनेवाले भी आगे बढ़ जाते हैं तो उनको एक विलक्षण आनन्द मिलता है, जिससे वे अपनी साधनाको छोड़ नहीं सकते । वह जो सर्वोपरि आनन्द है, वह हम सबको मिल सकता है, इसमें सन्देह नहीं है । सन्देह क्यों नहीं है ? कि हम साधन करते हैं तो हमारेको विलक्षणता दीखती है । आप भी साधन करो, आपको भी दीखेगी । सत्संग करनेसे बहुत लाभ होता है । हमने तो सत्संगके समान कोई उपाय नहीं देखा है । साधन बहुत हैं और लोग साधन करते भी हैं, पर सत्संगके द्वारा जो लाभ होता है, वह वर्षोंतक साधन करनेसे भी नहीं होता ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘अच्छे बनो’ पुस्तकसे