मनुष्यशरीरको
सबसे श्रेष्ठ माना गया है‒‘लब्ध्वा सुदुर्लभं
बहुसम्भवान्ते’ (श्रीमद्भागवत ११/९/२९) । अकारण कृपा करनेवाले प्रभु कृपा
करके मनुष्यशरीर देते हैं‒ कबहुँक करि करुना नर देही । देत ईस बिनु हेतु
सनेही ॥ (मानस,
उत्तरकाण्ड ४४/३) जैसे भगवान्ने
कृपा करके मनुष्यशरीर दिया है, ठीक वैसे ही भगवान्ने हमारेको जो परिस्थिति दी है,
वह भी कृपापूर्वक दी है । हमारे कर्म अच्छे हों, चाहे मन्दे हों, कैसे ही कर्म
हमने किये हों, परन्तु उनके फलका विधान करनेवाला हमारा परम सुहृद् है‒‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (गीता ५/२९) । सांसारिक
दृष्टिसे तो परिस्थिति दो प्रकारकी होती है‒सुखदायी और दुःखदायी, पर पारमार्थिक
दृष्टिसे परिस्थिति दो प्रकारकी नहीं होती । परमात्माकी
प्राप्ति चाहनेवालोंके लिये परिस्थितिके दो भेद नहीं होते; क्योंकि भगवान्ने
अपनी प्राप्तिके लिये मनुष्यशरीर दिया है तो जो परिस्थिति दी है, वह अपनी
प्राप्तिके लिये ही दी है । अतः चाहे अनुकूल-से-अनुकूल परिस्थिति हो, चाहे
प्रतिकूल-से-प्रतिकूल परिस्थिति हो, चाहे अनुकूल-प्रतिकूल-मिश्रित परिस्थिति हो, वह
केवल हमारे कल्याणके लिये मिली है । जो कुछ परिस्थिति
मिली है, वह केवल भगवत्प्राप्तिका साधन है‒‘साधन
धाम मोच्छ कर द्वारा’ (मानस, उत्तरकाण्ड ४३/४) । जो भोगी होता है, उसीकी
दृष्टिमें परिस्थिति सुखदायी और दुःखदायी‒दो तरहकी होती है । योगीकी दृष्टिमें
परिस्थिति दो तरहकी होती ही नहीं । कल्याणके
लिये अनुकूल परिस्थितिकी अपेक्षा प्रतिकूल परिस्थिति ज्यादा बढ़िया है । बढ़िया क्यों है
? कि अनुकूलतामें तो रागके कारण संसारमें फँसनेकी सम्भावना रहती है, पर
प्रतिकूलतामें संसारमें फँसनेकी सम्भावना नहीं रहती, प्रत्युत केवल परमात्माकी तरफ
चलनेकी मुख्यता रहती है । साधकके लिये दो ही बातें मुख्य हैं‒संसारसे हटना और
परमात्मामें लगना । अनुकूल परिस्थितिमें तो हम संसारसे चिपक जाते हैं; अतः संसारसे
हटनेमें मेहनत पड़ती है; परन्तु प्रतिकूल परिस्थितिमें संसारसे हटनेमें मेहनत नहीं
पड़ती । इसलिये प्रतिकूल परिस्थितिमें साधकका आधा काम हो
जाता है ! प्रतिकूल
परिस्थिति परमात्माकी प्राप्तिमें मुख्य साधन है । अगर हमें
प्रतिकूलता अच्छी नहीं लगती है तो हम असली साधक नहीं हुए । असली साधक तब होंगे, जब यह मानेंगे कि हमारे प्रभुकी भेजी हुई
परिस्थिति हमारे लिये मंगलमय है । यह एकदम पक्की, सिद्धान्तकी बात है । शास्त्रमें
आता है । लालने ताडने
मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके । तद्वदेव महेशस्य
नियन्तुर्गुणदोषयोः ॥ ‘जिस प्रकार बच्चेका पालन करने और ताड़ना देने‒दोनोंमें माताकी कहीं अकृपा नहीं होती, उसी प्रकार जीवोंके गुण-दोषोंका नियन्त्रण करनेवाले परमेश्वरकी कहीं किसीपर अकृपा नहीं होती ।’ |