दुःखमें आदमी
सावधान होता है । सुखमें वह सावधान नहीं होता । सुखमें आदमी हर्षित होता है तो
उसमें घमण्ड आ जाता है और वह धर्मका अतिक्रमण कर जाता है‒‘हृष्टो
दृप्यति दृप्तो धर्मादतिक्रामति ।’ परन्तु दुःखी आदमी धर्मका अतिक्रमण नहीं
करता । जो बड़े-बड़े धनी आदमी हैं, उनके घरपर साधु जा नहीं सकता, कोई माँगनेवाला जा
नहीं सकता; क्योंकि आदमी लाठी लिये बैठे हैं; आगे जाने नहीं देते ! परन्तु गरीब
आदमीके घर हरेक साधु चला जायगा और उसको रोटी मिल जायगी । गरीब आदमीके मनमें आयेगा
कि क्या पता, किस जगह हमारा भला हो जाय ! हमें कोई आशीर्वाद मिल जाय ! कैसे ही
भावसे वह देगा । परन्तु धनी आदमीमें यह बात नहीं होगी । वह कह देगा कि नहीं-नहीं,
हम नहीं देते, जाओ यहाँसे । अतः सुखी आदमीके द्वारा ज्यादा अच्छा काम नहीं होता;
क्योंकि वह सुख भोगनेमें लगा रहता है । दुःखी व्यक्ति भोगोंमें नहीं फँसता, उपराम रहता है, इसलिये वह दूसरोंके लिये, अपने लिये
और भगवान्के लिये ठीक होता है तथा भगवान्, जनता सब उसके लिये ठीक होते हैं । अतः
दुःखदायी परिस्थितिमें साधकको प्रसन्नता होनी चाहिये, आनन्द होना चाहिये कि भगवान्ने
बड़ी कृपा करके ऐसा मौका दिया है । इस बातको कुन्ती समझती थी, इसलिये उसने भगवान्से
विपत्ति माँगी और कहा कि ‘हे नाथ ! हमारेको सदा विपत्ति मिलती रहे’‒‘विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो’ (श्रीमद्भागवत
१/८/२५) । रन्तिदेवने कहा कि ‘जितने
भी दुःखी आदमी हैं, उन सबका दुःख तो मैं भोगूँ और वे सभी दुःखसे रहित हो जायँ’‒‘आर्तिं
प्रपद्येऽखिलदेहभाजामन्तःस्थितो येन भवन्त्यदुखाः’ (श्रीमद्भागवत ९/२१/१२)
। कितनी विचित्र बात कही है !
सबका दुःख मैं भोगूँ‒यह मामूली बात नहीं है । यह बड़ी ऊँची दृष्टी है । सुख-सामग्री भोगनेके लिये नहीं है ।
सुख-सामग्री है दूसरोंके हित करनेके लिये, सहायता करनेके लिये । यह शरीर
सुख-भोगके लिये दिया ही नहीं गया है‒‘एहि तन कर फल बिषय न
भाई’ (मानस, उत्तरकाण्ड ४४/१) । यह तो आगे उन्नति करनेके लिये दिया गया है
। मनुष्य सदाके लिये सुखी हो जाय, उसका दुःख सदाके लिये मिट जाय‒इसके लिये ही यह
मनुष्य-शरीर दिया गया है । श्रोता‒सुखमें सब साथी रहते हैं, दुःखमें
कोई नहीं रहता । स्वामीजी‒दुःखमें वे साथी
नहीं रहते, जो भोगी होते हैं, जो सज्जन पुरुष होते हैं, वे दुःखीपर विशेष कृपा
करते हैं, दुःखीका सहयोग करते हैं । जो केवल सुखके साथी
होते हैं, वे भोगी होते हैं । वे उससे सुख चाहते हैं, उसका भला नहीं चाहते ।
सुखीका साथ देनेवाले ठग होते हैं, धोखेबाज होते हैं । वे खुद सुख लूटना चाहते हैं
कि यह सुख हमें मिल जाय । सज्जन पुरुष दूसरेका हित करना चाहते हैं‒ गच्छतः स्खलनं
क्वापि भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति
दुर्जनास्तत्र समादधति सज्जनाः ॥ ‘चलते
हुए कोई गिर जाय, उसको चोट लग जाय तो दुष्ट पुरुष हँसेंगे, पर सज्जन पुरुष कहेंगे
कि ‘भाई ! कहाँ लगी है ? तुम्हें कहाँ जाना है ? हम तुम्हें पहुँचा दें ।’ अतः दुःखदायी
परिस्थितिमें सज्जन पुरुषोंका विशेष सहयोग मिलता है और हमारा अधिक विकास होता है । नारायण ! नारायण !! नारायण !!! ‒ ‘अच्छे बनो’ पुस्तकसे |