तेरे भावै कछु
करौ, भलो बुरो
संसार । ‘नारायण’ तू बैठि के, अपनौ भवन बुहार ॥ हमारा मतलब केवल भगवान्से है । हम अच्छे हैं तो
उनके हैं, बुरे हैं तो उनके हैं‒ जौ
हम भले बुरे तौ तेरे । तुम्हैं हमारी लाज-बडाई, बिनती सुनि प्रभु मेरे ॥ (सुरविनय. २३६) संसारमें तो एक तिनका भी हमारा नहीं रहेगा, नहीं रहेगा,
नहीं रहेगा । अपना है ही नहीं तो कैसे रहेगा ? संसारका प्रतिक्षण आपसे वियोग हो
रहा है । जन्म लेनेके बाद जितने वर्ष बीत गये, उतने वर्ष तो आप मर ही गये और बाकी
जो दिन बचे हैं वे भी जानेवाले हैं । एक भगवान्के सिवाय
अपना कुछ नहीं है । इसलिये भगवान्को पुकारो कि हे प्रभो ! हे मेरे प्रभो ! मेरा
कोई नहीं है, केवल आप ही मेरे हो, और कोई मेरा नहीं है । फिर मौज हो जायगी,
आनन्द हो जायगा ! मेरे तो भगवान् हैं‒इस बातको लेकर नाचने लग जाओ, कूदने लग जाओ
कि आज हमारा काम हो गया ! सब कुछ भगवान्के चरणोंमें
अर्पण कर दो । स्वप्नमें भी किसीकी गुलामी मत करो । हृदयसे गुलामी निकाल दो ।
नाचने लग जाओ कि बस, आज तो हम निहाल हो गये ! कोई पूछे कि अरे ! क्या मिल गया ? तो
कहो कि जो मिलना चाहिये था, वह मिल गया ! वह परमात्मा स्वतः सबको मिला हुआ
है, सबके भीतर विराजमान है । वह हमारा अपना है । और किसीसे हमें कोई गरज नहीं,
किसीकी आवश्यकता नहीं, किसीकी परवाह नहीं । कोई राजी रहे तो मौज, नाराज हो जाय तो
मौज ! हम किसीको दुःख नहीं देते, किसीके विरुद्ध कुछ करते नहीं, स्वप्नमें भी
किसीका अहित नहीं चाहते, फिर कोई राजी रहे या नाराज, यह उसकी मरजी । हमारा किसीसे
कोई मतलब नहीं । भगवान्
मेरे हैं‒इसके समान कोई बात है ही नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं । इस बातका हमें पता लग गया तो अब मौज हो गयी ! इतने दिन
दूसरोंकी गुलामी करके मुफ्तमें दुःख पाया । अब हम सबको प्रणाम करते हैं ! सभी
श्रेष्ठ हैं, पर हमें उनसे मतलब नहीं । हमें केवल भगवान्से ही मतलब है । परन्तु
भगवान्से भी हमें कुछ लेना नहीं है, कोई गरज नहीं करनी है । ढूँढा सब जहां में,
पाया पता तेरा नहीं । जब पता तेरा लगा, अब पता मेरा नहीं ॥ वास्तवमें मैं है ही नहीं, केवल तू-ही-तू है । छोटा-बड़ा,
अच्छा-मन्दा सब तू-ही-तू है । अब हमें असली चीज मिल
गयी ! आज पता लग गया कि तू ही है, मैं हूँ ही नहीं ! न मैं है, न मेरा है ।
केवल तू है और तेरा है । अब आनन्द-ही-आनन्द है । पूर्ण आनन्द, अपार आनन्द, सम
आनन्द, शान्त आनन्द घन आनन्द, अचल आनन्द, बाहर आनन्द, भीतर आनन्द, केवल
आनन्द-ही-आनन्द ! नारायण ! नारायण
!! नारायण !!! ‒‘मेरे तो गिरधर गोपाल’ पुस्तकसे |