एक मार्मिक बात है कि जगद्गुरु भगवान् अपनी
प्राप्तिके लिये मनुष्यशरीर देते हैं तो साथमें विवेकरूपी गुरु भी देते हैं ।
भगवान् अधूरा काम नहीं करते । जैसे बड़े अफ़सरोंको मकान, नौकर, मोटर आदि सब सुविधाएँ मिलती हैं, ऐसे ही
भगवान् मनुष्यशरीरके साथ-साथ कल्याणकी सब सामग्री भी देते हैं । वे मनुष्यको
‘विवेक’‒रूपी गुरु देते हैं, जिससे वह सत् और असत्, कर्तव्य और अकर्तव्य, ठीक और
बेठीक आदिको जान सकता है । इस विवेकसे बढ़कर कोई गुरु
नहीं है । जो अपने विवेकका आदर करता है, उसको अपने कल्याणके लिये बाहरी गुरुकी
जरूरत नहीं पड़ती । जो अपने विवेकका आदर नहीं करता, वह बाहरी गुरु बनाकर भी अपना
कल्याण नहीं कर सकता । इसलिये बाहरी गुरु बनानेपर भी कल्याण नहीं होता । मनुष्य जितना-जितना विवेकको महत्त्व देता है, उसको काममें
लाता है, उतना-उतना उसका विवेक बढ़ता जाता है और बढ़ते-बढ़ते वही विवेक
तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है । विवेकका आदर गुरु
बनानेसे नहीं होता, प्रत्युत सत्संगसे होता है‒‘बिनु
सतसंग बिबेक न होई’ (मानस, बालकाण्ड ३/४) । अच्छे
सन्त-महात्मा शिष्य नहीं बनाते तो भी उनका
सत्संग करनेसे उद्धार हो जाता है । उनके आचरणोंसे शिक्षा मिलती है, उनकी
वाणीसे शास्त्र बनते हैं । अतः जहाँ अच्छा सत्संग मिले, अपने उद्धारकी बात
मिले, वहाँ सत्संग करना चाहिये, पर जहाँतक बने, गुरु-शिष्यका सम्बन्ध नहीं जोड़ना
चाहिये । मेवाड़के राजाके चाचा थे‒महाराज चतुरसिंहजी । वे सत्संग सुनते और उसमें कोई बढ़िया बात मिलती तो सुनते ही
वहाँसे चल देते कि अब इस बातको काममें लाना है । वे ऐसा निर्णय कर लेते कि अब यह
बात हमारी उम्रसे नहीं निकलेगी । ऐसा करनेसे वे अच्छे सन्त हो गये । उन्होंने
अनेक अच्छे ग्रन्थोंकी रचना की और वे मेवाड़ी भाषाके वाल्मीकि कहलाये । इस तरह आपको
जो भी अच्छी बात मिले, उसको ग्रहण करते जाओ तो आप भी सन्त हो जाओगे ।
नारायण ! नारायण
!! नारायण !!! |