गुरुजी किसी
गद्दीके महन्त हों, उनके पास लाखों-करोड़ों रुपये हों तो उनसे रुपये प्राप्त करनेमें गुरुकी मुख्यता है । गुरु चेलेको
स्वीकार करेगा, तभी चेलेको धन मिलेगा । गुरुकी मरजीके बिना चेला उनसे धन नहीं ले
सकेगा । इस प्रकार धनकी प्राप्तिमें तो गुरुकी मुख्यता
है, पर कल्याण और विद्याकी प्राप्तिमें चेलेकी ही मुख्यता है । अगर चेलेमें अपने
कल्याणकी भूख न हो तो गुरु उसका कल्याण नहीं कर सकता । परन्तु चेलेमें अपने
कल्याणकी भूख हो तो गुरुके द्वारा उसको स्वीकार न करनेपर भी वह अपना कल्याण कर
लेगा । स्वामी
रामानन्दजी महाराजने कबीरको शिष्य बनानेसे मना कर दिया तो वे एक दिन पंचगंगा घाटकी
सीढ़ियोंपर लेट गये । रामानन्दजी महाराज स्नानके लिये वहाँसे गुजरे तो अनजानमें
उनका पैर कबीरपर पड़ गया और वे ‘राम-राम’ बोल उठे । कबीरने ‘राम’–नामको ही
गुरुमन्त्र मान लिया और साधनामें लग गये । परिणाममें कबीर सन्तोंमें चक्रवर्ती
सन्त हुए ! द्रोणाचार्यजीने एकलव्यको शिष्यरूपसे स्वीकार नहीं किया तो उसने
द्रोणाचार्यकी प्रतिमा बनाकर और उनको गुरु मानकर धनुर्विद्याका अभ्यास शुरू कर
दिया । परिणाममें वह अर्जुनसे भी तेज हो गया ! अतः गुरु
बनानेसे ही कल्याण होगा‒यह बात है ही नहीं । अगर ऐसी बात होती तो जिन्होंने गुरु बना लिया, क्या उन सबका कल्याण हो
गया ? क्या उन सबको भगवान् मिल गये ? जिसके उपदेशसे, मार्गदर्शनसे
हमारा कल्याण हो जाय, वही वास्तवमें हमारा गुरु है, चाहे हम उसको गुरु मानें या न
मानें, चाहे वह हमें चेला माने या न माने और चाहे गुरुको हमारा पता हो या न हो ।
दत्तात्रेयजीने अपने चौबीस गुरुओंकी बात बतायी तो क्या किसीने आकर उनसे कहा कि तू
मेरा चेला है और मैं तेरा गुरु हूँ ? गुरु ऐसा बनाना चाहिये कि गुरुको पता ही न चले कि कोई मेरा
चेला है ! नारायण ! नारायण !! नारायण !!! |