।। श्रीहरिः ।।

              


आजकी शुभ तिथि–
       चैत्र शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७८ मंगलवार

भगवत्प्राप्ति गुरुके अधीन नहीं


जिसको हम प्राप्त करना चाहते हैं, वह परमात्मतत्त्व एक जगह सीमित नहीं है, किसीके कब्जेमें नहीं है, अगर है तो वह हमें क्या निहाल करेगा ? परमात्मतत्त्व तो प्राणिमात्रको नित्य प्राप्त है । जो उस परमात्मातत्त्वको जाननेवाले महात्मा हैं, वे न गुरु बनाते हैं, न कोई फीस (भेंट) लेते हैं, प्रत्युत सबको चौड़े बताते हैं । जो गुरु नहीं बनते, वे जैसी तत्त्वकी बात बता सकते हैं, वैसी तत्त्वकी बात गुरु बननेवाले नहीं बता सकते ।

सौदा करनेवाले व्यक्ति गुरु नहीं होते । जो कहते हैं कि पहले हमारे शिष्य बनो, फिर हम भगवत्प्राप्तिका रास्ता बतायेंगे, वे मानो भगवान्‌की बिक्री करते हैं । यह सिद्धान्त है कि कोई वस्तु जितने मूल्यमें मिलती है, वह वास्तवमें उससे कम मूल्यकी होती है । जैसे कोई घड़ी सौ रुपयोंमें मिलती है तो उसको लेनेमें दूकानदारके सौ रुपये नहीं लगे हैं । अगर गुरु बनानेसे ही कोई चीज मिलेगी तो वह गुरुसे कम दामवाली अर्थात्‌ गुरुसे कमजोर ही होगी । फिर उससे हमें भगवान्‌ कैसे मिल जायँगे ? भगवान्‌ अमूल्य हैं । अमूल्य वस्तु बिना मूल्यके मिलती है और जो वस्तु मूल्यसे मिलती है, वह मूल्यसे कमजोर होती है । इसलिये कोई कहे के मेरा चेला बनो तो मैं बात बताऊँगा, वहाँ हाथ जोड़ देना चाहिये ! समझ लेना चाहिये कि कोई कालनेमि है ! नकली गुरु बने हुए कालनेमि राक्षसने हनुमान्‌जीसे कहा था‒

सर मज्जन करि आतुर आवहु ।

दिच्छा देऊ ग्यान जेहिं पावहु ॥

(मानस, लंकाकाण्ड ५७/४)

उसकी पोल खुलनेपर हनुमान्‌जीने कहा कि पहले गुरुदक्षिणा ले लो, पीछे मन्त्र देना और पूँछमें सिर लपेटकर उसको पछाड़ दिया !

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!